डॉ. भूपेन्द्र सिंह : तो पेट्रोल 200₹ लीटर.. रूस ने इसलिए कहा था अमेरिका भारत के चुनावों को ऐसे प्रभावित कर रहा है..
नरेंद्र मोदी की रुस यात्रा के बाद पूरी दुनिया में उनको लेकर चर्चायें तेज़ हैं। मैं पिछले दो दिन से अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के देशों के लगभग सभी प्रमुख मीडिया आउटलेट चैनल पर जाकर मोदी और पुतिन के यात्रा के संबंध में रिपोर्टिंग को देखने और पढ़ने का प्रयास किया है। मेरी हमेशा से आदत रही है कि मैं ऐसे रिपोर्ट और वीडियो के बाद विभिन्न देशों से लोगों की आ रही टिप्पणियों को ध्यान से पढ़ता हूँ।
लगभग सारी वेस्ट और अमेरिकन मीडिया बार बार नरेंद्र मोदी को जहां कोस रही है वहीं उनके नागरिक पुतिन के सामने बैठकर मोदी द्वारा युद्ध की जमकर निंदा करने की तारीफ़ कर रहे हैं। नागरिकों का कहना है कि जो वास्तव में मित्र होते हैं और साफ़ दिल से शांति चाहते हैं वहीं उस तरह आमने सामने बैठकर बात करते हैं। अधिकांश नागरिकों ने कहा कि कतर के अतिरिक्त केवल भारत ही है जो वास्तव में शांति चाहता है, लेकिन क़तर ने भी पुतिन के सामने बैठकर युद्ध के निंदा की हिम्मत नहीं की। आम लोगों में प्रधानमंत्री मोदी के प्रति आदर का भाव है। हालाँकि कुछ नागरिको का मानना है कि भारत बैलेंस बना रहा है जिसके प्रत्युत्तर में उन्हीं के नागरिकों का कहना था कि कोई भी देश सबसे पहले अपने नागरिकों के भले के लिए सोचेगा फिर भी यदि सामने बैठकर स्पष्टता से बात कर रहा है तो भी बहुत बड़ी बात है।
अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के देश रुस को पूरी दुनिया से काटना चाहते थे और सबक़ सिखाना चाह रहे थे। इस मौक़े को लाभ उठाकर चीन जिसके पास दुनिया की 15% से अधिक की आबादी है, वह खड़ा हो गया। रुस को इससे बहुत बल मिला। कुछ दिन बाद नार्थ कोरिया के तानाशाह भी पुतिन के पक्ष में खुलकर खड़े हो गये। भारत पहले स्पष्टता से खड़ा नहीं था, लेकिन बावजूद इसके वह तेल और रक्षा व्यापार जारी रखे हुए था। भारत ने अमेरिका और पश्चिमी देशों से अपने मित्रता का लिहाज़ रखा और रुस से उचित दूरी बनाए रखी। अमेरिका को फिर भी यह बात खटकती रही कि भारत हमारे कहने के मुताबिक़ क्यों नहीं चल रहा है? जबकि सत्य यह है कि भारत उनके मुताबिक़ चलता तो अब तक भारत में डीज़ल पेट्रोल के दाम पिछले साल से लगभग 200₹ प्रति लीटर चल रहा होता और उसके कारण बाक़ी सब चीजों के दामों में कम से कम पंद्रह प्रतिशत की बढ़ोतरी होती। मज़ेदार बात यह भी है कि यूरोप के देशों में जो थोड़ी सी पेट्रोलियम की क़ीमतों में स्थिरता है उसमें भी भारत की ही भूमिका है। भारत पहले तो बाक़ी दुनिया से तेल कम लेकर उधर डिमांड घटाकर दाम नियंत्रित करा रहा है जबकि दूसरी तरफ़ रुस के तेल को रिफाइन करके भी उन्हें सप्लाई कर रहा है।
अमेरिका को लेकिन किसी भी क़ीमत पर यह स्वीकार नहीं हुआ। उन्होंने प्रत्यक्ष लड़ाई लड़ने के बजाय कनाडा को आगे कर दिया। कनाडा एक प्रकार से अप्रत्यक्ष तौर पर अमेरिका से ही संचालित देश है। काफ़ी हद तक अमेरिका का अंकुश उसके ऊपर रहता है। भारत में ख़ालिस्तान आंदोलन उभारने के लिए अमेरिका ने कनाडा का कान उमेठा। आतंकियों गतिविधियों में लिप्त लोगों के मानवाधिकार का मामला उठाया गया, भारत को दूसरे देश में हिंसा का दोषी बताया गया। बड़े पैमाने पर पंजाब में अस्थिरता फैलाने के लिए फंडिंग की गई। ख़ुद प्रधानमंत्री तक को बंधक बनाने की योजनाएँ हुईं। किसान आंदोलन उसी का एक हिस्सा है। युद्ध से पूर्व भी अमेरिका को यह पसंद नहीं आ रहा था कि भारत स्वतंत्र विदेश नीति का पालन करे। अमेरिका वास्तव में चीन और भारत के तनावों में अपनी भलाई भी देखता है क्योंकि यदि ये दोनों देश आपस में लड़ेंगे तो शक्ति स्थापित करने में आसानी होगी। लेकिन जब से रुस यूक्रेन युद्ध शुरू हुआ है तबसे भारत और चीन के बीच तनाव की खबरें एकदम से ग़ायब हो गयीं क्योंकि अमेरिका यूरोप शक्तिकेंद्र के ख़िलाफ़ भारत चीन और रुस तीनों को लगने लगा कि आपस में यह लड़ने का समय नहीं है। कनाडा के मामले में भी भारत में बिना डरे कदम उठाया और कनाडा से संबंध तोड़ने का निर्णय कर लिया। इसके बाद अमेरिका मैदान में खुलकर आया और न्यूयार्क में बैठे पन्नू को भारत के ख़िलाफ़ भोंकने के लिए लगाया। भारत की मीडिया ने इस अमेरिका पोषित ख़ालिस्तानी को हाथोंहाथ लेना शुरू ही किया था कि केंद्र सरकार ने नयी गाइडलाइन जारी कर दी और आतंकियों को टीवी पर इंटरव्यू बंद कर दिया गया। उसके बाद अमेरिका ने फिर से मानव अधिकारों की दुहाई दी और कहा कि पन्नू को मारने की योजना भारत ने बनाई जिसके लिये एक भारत के नागरिक को अभी भारत के चुनाव के तुरंत बाद गिरफ़्तार कर लिया।
इतनी योजनाओं के बाद भी जब भारत नहीं झुका तो कांग्रेस पार्टी को चुनावों में आगे करने की योजना बनी और साथ में प्लान बी तैयार किया गया कि इन सब के बावजूद भी यदि भारत मे मोदी की ज़बरदस्त वापसी होती है तो भारत के चुनावों को ही कंडेम कर दिया जाएगा और इस चुनाव को फ़र्ज़ी घोषित करके कांग्रेस की मदद से अराजकता स्थापित की जाएगी। कांग्रेस के कई बड़े नेताओं ने बयान भी दे दिया कि यदि मोदी तीन सौ से अधिक सीट लाते हैं तो इसका मतलब होगा कि भारत में चुनाव फ्रॉड तरीक़े से हुआ है। इसकी भूमिका रखने के लिए चुनाव आयोग पर अविश्वास उत्पन्न करने के लिए राहुल गांधी एंड गठबंधन ने खूब ज़ोर लगाया। चुनाव समाप्त होने और परिणाम आने के बीच जब एग्जिट पोल जारी हुआ जिसमें भाजपा को आगे दिखाया गया तो उस दो तीन दिन के गैप के अमेरिका ने अपनी मीडिया का प्रयोग करके ठीक उसी समय अपने देश में EVM का मुद्दा उठा दिया। जबकि अमेरिका की ईवीएम इंटरनेट से कनेक्टेड होती जबकि भारत का ईवीएम एक बेहद सामान्य कैलकुलेटर। चुनाव के आख़िरी दो चरण के दौरान रुस ने एक महत्वपूर्ण प्रेसवार्ता की जिसमें उसने बताया कि अमेरिका की सरकारी मशीनरी तक भारत के चुनावों को प्रभावित करने में लगी हुई है और अपने कंपनियों के माध्यम से भी यह प्रयास जारी है। मात्र 99 सीट जीतने के बाद अमेरिका के ही चढ़ावे और समर्थन के कारण राहुल गांधी एंड गठबंधन इतना अति आत्मविश्वास में दिख रही है और अमेरिका का कांग्रेस को यह समर्थन तब तक जारी रहने वाला है जब तक कि अमेरिका में ट्रम्प की वापसी नहीं होती। राहुल गांधी के पास इस समय दोनों हाथों में लड्डू है, ऐसा मौक़ा मिले तो कोई भी व्यक्ति भला ख़ुशी से पागल क्यों न हो जाये? चीन और अमेरिका दोनों इस समय राहुल गांधी के साथ हैं।
तमाम तरह के प्रयासों, साज़िशों और कुछ एक प्रदेश में स्वयं के मूर्खताओं के बावजूद भारत में मोदी सरकार की वापसी हो गई है। मोदी ने अपने एक चाल से सब कुछ साधने का ज़बरदस्त प्रयास किया है। जब नाटो की बैठक में यह दिखाया जाना था कि दुनिया ने रुस को आइसोलेट कर दिया है तब प्रधानमंत्री मोदी ने रुस जाकर कह दिया कि चीन के साथ साथ भारत भी रुस के साथ है। अब रुस, चीन और भारत यदि ईस्ट यूरोप और एशिया में एक साथ हैं तो भला रुस आइसोलेट कैसे हुआ? भारत ने पुतिन के मुँह पर जाकर युद्ध का विरोध किया और ख़ासकर चिल्ड्रेन हॉस्पिटल के घटना का विरोध जताया तो वैश्विक शांति के ख़िलाफ़ कैसे खड़ा है? रुस जो चीन के निकट मजबूरी में चलता चला जा रहा था, वह भी अब क्यों एकतरफ़ा उसकी तरफ़ जाएगा? उधर अमेरिका को भी मैसेज दे दिया कि तुम चाहे जो करो, हम वहीं करेंगे जो हमारे देश के लिए अच्छा होगा।
अब भारत की आंतरिक राजनीति और बाह्य राजनीति पूरी तरह से अमेरिका के चुनावों पर निर्भर हैं। यदि लेफ्ट लिबरल की हार होती होती है तो दुनिया समेत भारत के लिए अच्छा होगा और यदि इनकी जीत हुई तो हंगर इंडेक्स, डेमोक्रेसी इंडेक्स, मीडिया इंडेक्स सबमें भारत को पीछे धकेल कर भारत पर अपने दबाव को बढ़ाने का अंतिम हथियार भी चलेंगे। देखना होगा कि लेफ्ट लिबरल क्या दुनिया को फिर से पीछे ले जाने के अपने सपने को पूरा कर पाता है या नहीं???