दयानंद पांडेय : मेरा नाम जोकर से कहीं बहुत आगे की फ़िल्म है प्रेम रोग

प्रेम के अपराजित और अनूठे निर्देशक हैं राजकपूर । लेकिन प्रेम रोग उन की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म है । आवारा और मेरा नाम जोकर से कहीं बहुत आगे की फ़िल्म है प्रेम रोग । अबोध मासूमियत और प्रेम के नैसर्गिक पाग में पगी यह फ़िल्म कब आहिस्ता से विधवा जीवन के कांटों की चुभन और प्रेम की पवित्रता को बांच जाती है , कि इस का बाकायदा बयान भी कठिन है । पूरी नाटकीयता , किंतु सहजता और रोमांचकता के साथ जमीदारी , सामंती जीवन और इस के बीच सिसकता विधवा जीवन का संत्रास , उस की सुलगन का संलाप राजकपूर ही इस तन्मयता और बांकपन से बांच सकते थे । निर्देशन , पटकथा , गीत , संगीत और संवाद के सारे गहने अपना पूरा कसैलेपन लिए इस फिल्म में अपनी पूरी त्वरा के साथ उपस्थित हैं।

प्रेम और सामाजिक सुधार की अनूठी फिल्म । 1982 में बनी यह फिल्म आज भी पुरनम और प्रासंगिक है । पद्मिनी कोल्हापुरे , नंदा , तनूजा , सुषमा सेठ , बिंदु , ऋषि कपूर , विजयेंद्र , कुलभूषण खरबंदा , रज़ा मुराद , ओमप्रकाश और शम्मी कपूर के अभिनय का अंदाज़ अनूठा है । प्रेम की ऐसी कथा हिंदी फिल्म की थाती है । इस का सेकेण्ड हाफ तो जैसे कलेजा काढ़ लेता है । मनोरमा के वैधव्य जीवन का जहर , उस की नागफनी और उस का जंगल राजकपूर के परिपक्व कैमरे और निर्देशन में ही समा सकता था । एक नौजवान विधवा की अधेड़ मां का संत्रास नंदा ने इस बारीकी से बार-बार बांचा है कि कई बार कलेजा मुंह को आ जाता है । एक विधवा के पुनर्विवाह की कालजयी दास्तान को प्रेम रोग में किसी फूल की तरह खिलाना भी राजकपूर का काम था यह प्रेम रोग देखने वाले ही जान सकते हैं।

मैं कई बार देख चुका हूं । आज भी देख रहा हूं । जैसे यह फिल्म नहीं कविता हो । राजकपूर की कविता । मनोरमा और देवधर के प्रेम की कविता । अप्रतिम और अनूठी । पंडित नरेंद्र शर्मा और संतोषानंद के मीठे गीत लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के संगीत में अपने पूरे माधुर्य और संदेश के साथ फिल्म की कथा को परवान चढ़ाते हैं।

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