परख सक्सेना : नानाजी “कुछ लोग राजाराम की पूजा करते है, कुछ भगवान राम की मैं वनवासी राम को पूजता हूं”

1949 तक RSS से बैन हट चुका था, संघ प्रमुख गुरु गोलवलकर के सामने एक युवा कोई प्लान रखता है और गोलवलकर मुस्कुराते हुए स्वीकार लेते है।

ये युवा नानाजी देशमुख थे, जन्म महाराष्ट्र मे हुआ लेकिन बस जन्म ही हुआ कर्मभूमि उत्तरप्रदेश और राजस्थान को बना लिया। कांग्रेस के दिग्गज नेता बाल गंगाधर तिलक से बहुत ज्यादा प्रभावित हो गए और हिंदुत्व की राह पकड़ ली।

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परिवार की स्थिति इतनी खराब थी कि पढ़ाई के लिये पैसे नहीं थे, जैसे तैसे स्कॉलरशीप से प्रबंधन हुआ। ये बिंदु याद रखिये क्योंकि आगे की कहानी इसी पर है।

नानाजी की एक समय तंगी इतनी हो गयी थी कि उन्हें एक साधू के यहाँ रसोईये का काम भी करना पड़ा। हिंदुत्व की वज़ह से RSS से जुड़ गए, 1940 मे RSS के संस्थापक डॉ हेडगेवार की मृत्यु हो चुकी थी।

गुरु गोलवलकर ने कमान संभाली और नानाजी को उत्तरप्रदेश प्रचारक बनाकर भेज दिया। देश आजाद हुआ और आगे चलकर नानाजी ने गुरु गोलवलकर को प्रस्ताव रखा कि संघ को अपने विद्यालय शुरू करने चाहिए।

संघ वो संगठन जो 5 वर्ष की ईकाई मे फैसले नहीं लेता बल्कि दशकों के हिसाब से रणनीति बनाता है। उसने नानाजी को 1975 तक का समय दिया और गोरखपुर मे 1952 मे ही सरस्वती शिशु मंदिर नाम से विद्यालय खोल दिया गया।

टेस्टिंग होनी थी, 5 वर्ष मे सफलता दिखाई देने लगी। नानाजी ने जिद की कि और एक विद्यालय खोला जाए, RSS ने पीला झंडा दिखाया कि कुछ समय और देखो।

एक दिन नानाजी ने स्कूल का निरिक्षण किया देखा कि सरस्वती शिशु मंदिर मे प्रवेश के लिये परीक्षा हो रही है। नानाजी क्रोधित हुए क्योंकि स्वयं शिक्षा के लिये पापड़ बेल चुके थे, चाहते थे कि हर बच्चा पढ़े।

प्राचार्य ने कहा कि हमारे पास सीटें सीमित है हम सब बच्चो को नहीं पढ़ा सकते। नानाजी ने फिर से नागपुर चिट्ठी भेजी, इस बार गुरु गोलवलकर मान गए। कुछ सरस्वती शिशु मंदिर और खोले गए।

इस बीच RSS का वटवृक्ष खूब फैला, जनसंघ (बीजेपी) बन गया था। विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना हो गयी थी, जहाँ जहाँ जनसंघ की सरकारे बनी वहाँ वहाँ बड़ी आसानी से सरस्वती शिशु मंदिर खोले गए।

1975 तक हालात ऐसे बन गए कि अब इसे केंद्रीयकरण की आवश्यकता पड़ी। सरस्वती शिशु मंदिरो की संख्या 100 को पार कर चुकी थी। गोलवलकर जी भी स्वर्ग सिधार चुके थे और एम डी देवरस सरसंघचालक बन गए थे।

देवरस ने अपने एजेंडे मे छूआछूत को खत्म करना प्राथमिकता पर रखा था, उन्हें सरस्वती शिशु मंदिर इसके लिये एक अस्त्र दिखाई दिया क्योंकि बिना जातिभेद के सभी बच्चे साथ मे पढ़ाई कर रहे थे।

उन्होंने नानाजी को बुलाया और विद्या भारती नाम का संगठन बनाया गया। सारे विद्यालय इसी के नीचे आ जाए और उच्च शिक्षण संस्थानों पर भी जोर दिया जाए ऐसा नए संघ प्रमुख का आग्रह था।

नानाजी देशमुख जनसंघ के बड़े नेता भी थे, लेकिन उन्हें हर पार्टी मे पसंद किया जाता था। जो भी मुख्यमंत्री नानाजी का दोस्त बनता उससे बातो बातो मे कह देते कि बच्चो के लिये एक विद्यालय बनवा दो। मुख्यमंत्री ना नहीं कर पाता।

ऐसे थे हमारे नानाजी, 1980 मे ज़ब अपने पीक पर थे। एक समय तो मंत्री पद सामने रखा था उसी समय सन्यास की घोषणा कर दी, राजमाता विजया राजे सिंधिया ने वापस लौटने के लिये पत्र भेजा।

इसके जवाब मे नानाजी ने लिखा “कुछ लोग राजाराम की पूजा करते है, कुछ भगवान राम की। मुझे चित्रकूट जाने दीजिये क्योंकि मैं वनवासी राम को पूजता हुँ”

1999 मे प्रधानमंत्री वाजपेयी जी ने राष्ट्रपति के माध्यम से राज्यसभा मे बुलवा लिया, सन 2010 मे मृत्यु हुई उसी चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय मे जिसकी स्थापना उन्होंने खुद की थी। जाहिर है अंतिम संस्कार भी नहीं हो सका क्योंकि अपना शरीर दान कर दिया था।

वाजपेयी जी ने पदम् विभूषण दिया, मोदीजी भी ज़ब प्रधानमंत्री बने तो कुछ देना चाहते थे, सारे पुरुस्कार छोटे पड़ने लगे तो भारत रत्न से ही विभूषित कर दिया।

संघ प्रमुख मोहन भागवत ने हाल ही मे एक सरस्वती शिशु मंदिर का उद्घाटन किया और नानाजी को याद किया। ज़ब भागवत प्रचारक थे तो नानाजी ने एक इच्छा मे कहा था कि एक विद्यालय और बनवा देना।

विद्या भारती आज सबसे बड़ा शिक्षण संस्थान है जिसमे 34 लाख बच्चे पढ़ रहे है उन्ही नानाजी की दया से जो स्वयं कभी मजबूर थे। नानाजी द्वारा स्थापित कितने ही संस्थान तो ऐसे भी है जो विद्या भारती के नहीं सीधे सरकार के अधीन चले गए है।

हिन्दू धर्म मे विद्या की देवी तो है मगर देवता नहीं, प्राचीन यूनान मे अपोलो को विद्या का देवता कहा जाता था। नानाजी देशमुख के लिये यही शब्द सार्थक है।

✍️परख सक्सेना✍️
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