देवांशु झा : ध्वनि प्रदूषण और हमारा समाज.. पव्वे भर की स्कूटी वाला भी…

मैं इस संकट अथवा प्रवृत्ति को गंभीरता से समझना चाहता हूॅं। पिछले कुछ वर्षों में हम इतने शोर पसंद नागरिक कैसे बने। मुझे ध्यान आता है कि दशकों पहले गांव में किसी उत्सव अथवा शादी-ब्याह के मौके पर लाउडस्पीकर बजाने का चलन था। गांव के एकरस जीवन में लाउडस्पीकर एक व्यतिक्रम था। कुछ उत्सव सरीखा लगता था। लेकिन जब वही लाउडस्पीकर लगातार चीखने लगता तब कोफ्त होने लगती। मुझे याद है, मां बहुत चिढ़ती थी। उन्हें कुछ देर के बाद ही शोर का अनुभव होने लगता था। तब आम तौर पर लोगों के पास रेडियो या टेपरिकॉर्डर होते थे। हमारे घर एक रिकार्ड प्लेयर भी था। उनकी आवाज की उच्च सीमा भी साधारण ही होती। तथापि हम उच्च सीमा कभी नहीं छूते। आवाज बढ़ाते ही डांट पड़ जाती।

धीरे-धीरे साउंड सिस्टम आने लगे। नब्बे के दशक में पटना विश्वविद्यालय के छात्रावास में ही दो-तीन अंग्रेजीदां छात्रों के पास अधिक आवाज करने वाले साउंड सिस्टम हुआ करते थे। यह भी एक कटुसत्य है कि तेज आवाज में गाने बजाने वाले उन छात्रों में संगीत का कोई परिष्कृत आस्वाद नहीं था। उन्हें जो गाने बहुत अच्छे लगते थे, वो मेरी दृष्टि में साधारण ही होते। धीरे-धीरे सिनेमाघरों का कल्चर बदलने लगा। मल्टीप्लेक्स के साथ धूमधड़ाम करते हुए डाॅल्बी डिजिटल साउंड शुरू हुआ। सिनेमा हाल के भीतर ध्वनि प्रदूषण बहुत बढ़ने लगा। लेकिन तब लोग उस लाउड म्यूजिक का आनंद ले रहे थे। धीरे-धीरे वह उनकी आदतों में घुल मिल गया। मैं आज तक उस साउंड के साथ सहज नहीं हो सका हूॅं। कई बार चौंक उठता हूॅं।‌ चूंकि मैंने सिनेमा हॉल जाना लगभग छोड़ ही दिया है इसलिए मेरा संकट बड़ा नहीं है। (पत्रकारिता छोड़ने का एक बड़ा कारण यह भी है कि न्यूजरूम अत्यंत लाउड जगह होता है। बहुत कर्कश और आक्रान्तकारी।)

समय के साथ घर से लेकर सड़क और बाजार तक आवाज बढ़ने लगी। चिंघाड़ने वाले हार्न आने लगे। पव्वे भर की स्कूटी वाला भी एसयूवी का हार्न लगवा लेता है। तेज आवाज में गाने बजाना बहुत आम है। इस परिवर्तन से मैं एक ही बात समझ पा रहा हूॅं–कि विकास और तकनीक के साथ उग्रता आक्रामकता बढ़ रही। आदमी का हृदय बंजर हो रहा। बुद्धि को समय की आक्रामकता ने हर लिया। विवेक मर रहा। आपको ध्यान होगा, एम्बैसेडर और फिएट जैसी कारों के हार्न बहुत साधारण होते थे। अब बहुत तेज आवाज वाले हार्न होते हैं और बार-बार बजाए जाते हैं। शादी-विवाह और अन्य अवसरों पर भयंकर आवाज कर धरती कंपाने वाले साउंड सिस्टम लगाए जाते हैं। उन्माद बढ़ रहा। पागलपन कह सकते हैं। सड़क पर चलने वाले अस्सी प्रतिशत युवा कान में लीड ठूंसे रहते हैं। कोई कितने गाने सुन सकता है? कितनी देर तक सुन सकता है? यह यक्ष प्रश्न है। ट्रेन और दूसरे परिवहनों में यात्रा करने वाले बहुसंख्य लोग मोबाइल फोन पर कुछ देखते रहते हैं। कुछ तो बहुत तेज आवाज में रील चलाते रहते हैं। टोक दीजिए तो बिफर पड़ते हैं। उनमें कोई नागरिक दायित्व नहीं। शोर को कम करने का निवेदन अधिक शोर और प्रतिरोध से ठुकरा दिया जाता है।

किसी भी पर्यटक स्थल पर चले जाइये। तीर्थ क्षेत्र में घूम आइये। यही शोर सुनाई पड़ता है। सेल्फी हल्ला गुल्ला, नाच गाना, रील, ढोल नगाड़े पीटना। आदमी की सामाजिकता खत्म होती जा रही तो वह अकेलेपन में शोर खोजने लगा है। मैं इसे मनुष्य की चेतना से भी जोड़ता हूॅं। उसका टेस्ट..स्वाद! मन और बुद्धि से स्थूल लोगों में जड़ता का मोह होता है। शोर की भी उनमें उतनी ही स्वीकार्यता होती है। इसे आप उनके विविध जीवन प्रसंगों में देख सकते हैं। पंडित भीमसेन जोशी की एक बड़ी दिलचस्प कहानी है। वह कार चलाने के बड़े शौकीन थे। उनकी कार हमेशा मेंटेन्ड भी रहती और उसकी आवाज में जरा सा परिवर्तन वही सबसे पहले भांप जाते थे। उन्होंने स्वर को साधा था। वह उस ट्यूनिंग के बिगड़ते ही पकड़ लेते। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि बहुत तेज आवाज में संगीत सुनने वाला कभी भी रीफाइंड श्रोता नहीं हो सकता। यह देखा आजमाया हुआ है।

यह शोर की संस्कृति केवल बाहर की वस्तु नहीं है। यह हमारे आभ्यंतर का प्रकट रूप है। इन दिनों यह एक विकराल समस्या बन चुकी है। हर नैसर्गिक वस्तु, भाव या रूप बाहर से अतिक्रमित हो रहा। सिनेमा और धारावाहिक भयावह रूप से लाउड हो चुके हैं। सोशल मीडिया अधिक लाउड है। अब वहां हर व्यक्ति एक टेक्नीशियन भी है। वह किसी भी दृश्य वीडियो को एडिट कर उसमें परिवर्तन कर सकता है। कर रहा है। इन सबके केन्द्र में शोर है। जहां शोर नहीं है, वहां आदमी जाना चाहता है। जा रहा है और वहां शोर कर रहा। प्रकृति के मूल पवित्र स्वर बुझ रहे। एक अजीब सा पागलपन सार्वभौमिक हो रहा। आज की पीढ़ी के लिए यह सामान्य है। क्योंकि वह इसी शोर के बीच जन्म ले रही, बढ़ रही। एक दिन किसी महाविस्फोट के साथ समाप्त हो जाएगी। भारत की सभ्यता इसलिए महान थी कि उसने सूक्ष्म का अन्वेषण किया था। अब वह स्थूल का शोध कर रही। विडम्बक है कि वह पूर्णतः विपरीत ध्रुव पर जा रही। उसने तय कर लिया है कि वह अपने नाश की कथा खुद लिखेगी।

हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर,
बैठ शिला की शीतल छाँह।
एक पुरुष, भीगे नयनों से,
देख रहा था प्रलय प्रवाह।

नीचे जल था, ऊपर हिम था,
एक तरल था, एक सघन।
एक तत्व की ही प्रधानता
कहो उसे जड़ या चेतन।

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