प्रसिद्ध पातकी : जनार्दन रोज हमारी डोर खींच कर हमें चलाते हैं पर आज रोल रिवर्स हो जाता है.
ईश्वर और उनकी विराटता का मुझे कोई अनुमान नहीं. बुद्धि ने जब सोचना भी नहीं सीखा था, तक से कुछ शब्द कान में जाते थे…”सहस्रशीर्षा पुरुष: सहस्राक्ष: सहस्रपात्”. भला कैसे विचित्र ईश्वर हैं. सहस्रों शीर्ष. सहस्र पद. हजारों आंखें.
कृपया ध्यान दीजिए कि संस्कृत में सहस्र शब्द का अर्थ हजार ही नहीं असंख्य भी होता है.
भगवान की इस विराटता को देख अर्जुन जैसे महापराक्रमी की लगभग “घिग्गी” बंध गयी थी. भय के कारण न चैन पड़ रहा था और न ही कुछ सूझ रहा था. कुरुक्षेत्र द्वैत भूमि थी. जहां द्वैत है, वहां कांपेरिजन है. वहां भय है.
पर पुरी धाम तो अद्वैत की भूमि है. जगन्नाथ की भूमि है. जनार्दन की भूमि है. वहां जगन्नाथ की विराटता मोहक है.चित्ताकर्षक है. अपनी ओर खींचती है. भगवान की डोरी में सभी बंधे हैं. जनार्दन रोज हमारी डोर खींच कर हमें चलाते हैं. पर आज रोल रिवर्स हो जाता है.
पार्थसारथी की रथ की डोर उसके हाथ से निकल जाती है. बलराम का बल भी इस डोर को जगन्नाथ के हाथों से फिसलने से नहीं रोक पाता. और अपनी बहन सुभद्रा तो अपने लहुरावीर की हर बात को मानने के सदा से ही तैयार रहती है.वे भला इस डोर के फिसलने का विरोध क्यों करने लगी?
भगवानके भक्त आज रथ नहीं खींचते. पुरुष सूक्त की उस विराटता को धरती पर उतार देते है. अद्वैत भूमि पहुंच हर भक्त का मन तो मानों गोपी बन जाता है…
“वे तो हैं हमारे ही हमारे ही हमारे ही ओ
हम उनकी की उनकी की उनकी ही हैं”
जय जगन्नाथ।।