डाॅ. चन्द्र प्रकाश सिंह : “यही समय है, सही समय है”

“यही समय है, सही समय है”

कोई परिणाम अकारण नहीं होता और किसी परिणाम का कोई एक कारण नहीं होता, कारणों के समुच्चय से परिणाम घटित होता है।

निःसंदेह नरेन्द्र मोदी सरकार ने अपने दश वर्ष के कार्यकाल में राष्ट्र के सांस्कृतिक गौरव, रक्षा, विदेश नीति और विकास के क्षेत्र में अनेक ऐतिहासिक कार्य किए। लोगों ने उन कार्यों को स्वीकारा और सराहा भी, लेकिन उसके साथ ही वातावरण में एक आंतरिक मानसिक परिवर्तन भी चल रहा था। उस परिवर्तन का कारण केवल सरकार और उसका नेतृत्व ही नहीं उससे जुड़े हुए अन्य राजनीतिक और गैर राजनीतिक लोगों की गतिविधियाँ भी थीं।

नरेन्द्र मोदी की सम्पूर्ण राजनीतिक यात्रा वर्चस्ववादी रही है। इस वर्चस्व भाव को लोगों ने स्वीकार किया, क्योंकि उन्हें यह लगा कि कुछ कठोर निर्णयों के लिए यह वर्चस्व भाव आवश्यक है। गुजरात की राजनीति में भी उन्होंने उन लोगों को किनारे लगाया जो कभी वहाँ की राजनीति की पहचान थे और यही नहीं जिन लोगों के सहयोग से वे आगे बढ़ते रहे उन्हें भी वे किनारे लगाते रहे। जिन लोगों ने उन्हें दिल्ली की गद्दी पर आसीन कराने के लिए एड़ी-चोटी एक कर दिया उनका नाम लेना तक वे कभी आवश्यक नहीं समझे।

भाजपा जिन्हें अपना वैचारिक पुरोधा होने का दावा करती है, उन दीनदयाल उपाध्याय और उनके वैचारिकी के एक शब्द अन्त्योदय के अतिरिक्त अन्य आर्थिक और राजनीतिक सिद्धान्तों को खूंटी पर टांग दिया गया और निरन्तर यह कहा जाता रहा कि यह नई भाजपा है अर्थात् जिसके राजनीतिक मूल्य, आचार और व्यवहार सन् 2014 के बाद विकसित हुए हैं। सन् 2014 के पूर्व की भाजपा को तभी याद किया गया जब अपने आप को कठिन चुनौतियों में उचित ठहराने की आवश्यकता पड़ी वरना भाजपा को एक नई पहचान देने की भरपूर कोशिश की गई।

इन सब के बाद भी नरेन्द्र मोदी अपने मंत्रिमण्डल और दल को बाहरी लोगों के प्रवेश के बाद भी अन्यों की अपेक्षा अनुशासित रखने में सफल रहे, लेकिन यह अनुशासन केवल और केवल मोदी के भय से मोदी के प्रति था, न कि किसी वैचारिक अधिष्ठान के प्रति, इसलिए इसमें समीक्षा और पुनरावलोकन का सर्वथा अभाव रहा। दूसरे दलों के भ्रष्ट से भ्रष्ट राजनेता के द्वारा मोदी के प्रति विश्वास प्रकट कर देना ही भाजपा के लिए सबसे बड़ी निष्ठा थी, फिर उसके अतीत को भूलकर उसे एक नया व्यक्ति ही घोषित कर दिया जाता था।

विरोधी दलों के मत में सेंध लगाने के लिए उनके नेताओं के कुकर्मों की अनदेखी करते हुए पुरस्कृत करना और मतदाताओं से उनके दल को वोट न देनें का आह्वान करना, यह विरोधाभास लोगों के मन को अच्छा नहीं लगा। रामभक्तों पर गोली चलवाने वाले का महिमामण्डन करना और फिर इसी मुद्दे पर उसके दल को वोट न देने का आह्वान करना यह भला कैसे पच सकता है?

राष्ट्र की संस्कृति, जीवनमूल्य, इतिहास और सुरक्षा के प्रति सबसे अधिक संवेदनशील समाज का मध्यम वर्ग होता है। भाजपा इन्हीं मुद्दों को लेकर अपनी राजनीतिक यात्रा प्रारम्भ की थी, इसलिए भाजपा को मध्यम वर्ग का समर्थन निरन्तर बढ़ता गया, वह मोदी सरकार में अपने चरम पर रहा, क्योंकि सरकार ने इन विषयों पर ठोस कार्य किया, लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर सुधार आदि के नाम पर यही मध्यमवर्ग इस सरकार में सबसे अधिक परेशान रहा।

गैर राजनीतिक क्षेत्र के लोगों को शैक्षणिक, विधिक और कुछ अन्य क्षेत्रों में अनावश्यक छूट दी गई। कहीं-कहीं नियुक्तियों आदि में उन लोगों द्वारा शासकीय तंत्र के समानान्तर प्राधिकार के रूप में कार्य किया जाता रहा। वैचारिकी के प्रसार के नाम पर योग्यता के साथ खिलवाड़ किया गया। किसी संस्था की गतिविधि में कुछ दिन सम्मिलित हो जाने से किसी में विज्ञान, गणित, अर्थशास्त्र, विधि आदि किसी विषय में योग्यता नहीं आ सकती, लेकिन मापदण्ड योग्यता को न बनाकर अपनी गतिविधियों में सम्मिलित होने को बनाया गया। उच्च से लेकर सामान्य पदों पर की गई नियुक्तियाँ न केवल योग्यता को अनदेखी करके की गईं बल्कि कुछ उच्चपदस्थ लोगों ने अत्यंत घृणित स्तर का कार्य किया। यह भी लोगों को आहत किया।

सांस्कृतिक उत्थान के क्षेत्र में मंदिरों के पुनर्निर्माण से लेकर जीर्णोद्धार तक के अनेक ऐतिहासिक कार्य हुए, लेकिन उद्घाटन आदि के चर्मोत्कर्ष पर उनका प्रस्तुतिकरण निहायत छिछले स्तर का वर्चस्व और प्रसिद्धि पर आधारित रहा।

श्रीराम जन्मभूमि की प्राणप्रतिष्ठा के कार्यक्रम में उन अभिनेताओं और अभिनेत्रियों को बुलाकर भोडा प्रदर्शन किया गया जिनका न तो उस आंदोलन से न ही हमारी संस्कृति, परम्परा और संस्कारों से दूर-दूर तक कोई लेना-देना रहा, बल्कि निरन्तर वे उसका मजाक उड़ाते चले आ रहे हैं, फिर भी आस्थावान समाज मूकदर्शक बनकर इसको चुपचाप देखता रहा कि चलो हमारे भगवान का मंदिर तो बन गया।

नरेन्द्र मोदी के महिमामण्डन में श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन के विगत चालीस वर्षों से चले आ रहे संघर्ष के इतिहास और उसके नायकों की पूरी तरह से अनदेखी की गई। यही नहीं उस समय चाटुकार भाड़ों द्वारा गीत और कविता लिखे गये वह आस्थावान भक्त के मानस को आहत करने वाले थे ‘जो राम को लाए हैं हम उनको लाएंगे’। क्या राम की भक्ति की महत्ता को समझने वाले की दृष्टि में राम को कोई ला सकता है? लेकिन इसे जमकर प्रचारित किया गया।

सर्वशक्तिमान मान लेने के बाद ऐसा होना स्वाभाविक होता है और वह भी उस परिस्थिति में जब व्यक्ति अपनी जैविक उत्पत्ति को ही नकारने लगे।

इन सबसे से भी अधिक महत्वपूर्ण विषय प्रत्याशियों के चयन का रहा। जब यह लगने लगता है कि जीत तो हमारे नाम पर होनी है, इसलिए हम जिसे चाहें उसे प्रत्याशी बनाएं, यह हमारा अधिकार है। जनता को यह समझाया जाने लगा कि तुम दामाद और बहू नहीं चुन रहे हो प्रतिनिधि चुन रहे हो। जनता उलट कर यह भी प्रश्न पूछ सकती थी कि क्या प्रत्याशी चुनते समय तुम दामाद और बहू चुन रहे थे? जानने वालों के लिए यह सन् 2004 के इतिहास की पनरावृत्ति थी, बस अंतर यह था कि उस समय कोई महाजन थे और इस समय कोई और।

फिर भी जो परिणाम आया है वह भाजपा के लिए बहुत सीमा तक संतोषजनक और संतुलित है। इसमें किए गये सुकर्मों का परिणाम और भविष्य के लिए चेतावनी व आत्मावलोकन निहित है।

साभार- डाॅ. चन्द्र प्रकाश सिंह

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