नितिन त्रिपाठी : लोकसभा चुनाव.. अगर यह 1984 वाली लहर बन जाये तो अचरज न होगा..
2014 चुनावों में मोदी जी की रैली के आयोजन में उनकी गुजरात से आईपीएस अफ़सर की टीम आई थी. उनसे पॉलिटिक्स की चर्चा कर रहे थे तो पूरे ज़िले के एक एक क्षेत्र के बाहुबली और वो कितने वोट दिला सकते हैं जैसी बातें होने लगीं. आईपीएस अफ़सर का कहना था दस साल रुक जाओ, मोदी जी प्राइम मिनिस्टर बन जायें फिर कोई नेता कोई बाहुबली न बचेगा. वो ज़मीन से उठा कर किसी को भी टिकट दे देंगे वही जीतेगा.
उस समय ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता था, आज एक्साक्ट्ली ऐसा ही है.
ज़मीन पर चुनाव है ही नहीं, औपचारिकता है. पक्ष से ज्यादा विपक्ष वाले मान चुके हैं भाजपा को नहीं हरा सकते. चुनाव में लगते हैं पैसे, जो उधर के कट्टर समर्थक थे सबकी जेबें विपक्ष में दस साल रहते ख़ाली हो चुकी हैं. जो थोड़े बहुत बचे हैं वह भविष्य देख रहे हैं. उन्हें पता है जितना है नहीं तो वह भी पैसे नहीं खर्च कर रहे हैं.
वहीं दूसरी ओर भाजपा ने उधर के जितने लोग तोड़े जा सकते थे सब तोड़ लिये. अब विपक्ष में वही बचे हैं जिन्हें भाजपा चाहती है कि वह विपक्ष में रहें.
राजनीति में इससे ज्यादा कम्फर्ट फील कुछ नहीं होता कि जब आप अपना विरोधी स्वयं चुन रहे हों.
इस बार विपक्ष के कोर वोट बैंक मुस्लिम तक में जोश ही नहीं है विरोध का. सब चुनाव लड़ने से पहले ही हार मान चुके हैं या सरेंडर कर चुके हैं.
ऐसे क्लीन स्वीप वाले चुनाव इतिहास में बिडले ही हुवे हैं. लहर तो ख़ैर अंतिम चरण में क्लियर दिखती है, पर अभी को देखते हुवे अगर यह 1984 वाली लहर बन जाये तो अचरज न होगा.
