डाॅ. चन्द्र प्रकाश सिंह : गायत्री मंत्र वेद का चरमोत्कर्ष है…
धर्म को हमने कहाँ से कहाँ ला कर खड़ा कर दिया। आज जिसे धर्म कह कर यह करो, यह मत करो, उसे करने का अधिकार है और उसे करने का अधिकार नहीं है आदि चर्चाएं होती हैं उसमें न धर्म का भाव होता है और न ही तत्व, बस अहंकार का पोषण होता है।

एक बहन ने लिखा है ‘मैं गायत्री मंत्र का जप करती थी लेकिन बाद में मुझे पता चाला कि स्त्रियाँ इसका जप नहीं कर सकतीं। मैं ने अनिष्ट होने के भय से जप करना बंद कर दिया।’
कितनी विचित्र बात है। वेद में कहाँ लिखा है कि स्त्रियाँ गायत्री या किसी भी वेद मंत्र का जप नहीं कर सकतीं? सत्य तो यह है कि वेद में अनेक ऋषिकाओं ने वेद मंत्रों का साक्षात्कार किया है, गार्गी, मैत्रेयी, कात्यायनी, अपाला, घोषा, लोपामुद्रा, ऐसी दर्जनों ब्रह्मवादीनी थीं, जिनका उल्लेख वेदों में किया गया है।
इसका दूसरा पक्ष भी है। गायत्री मंत्र में ऐसा क्या है जिससे उसका जप स्त्रियाँ नहीं कर सकतीं? यथार्थ में गायत्री मंत्र एक विज्ञान है, जो सम्पूर्ण पृथ्वी की ऊर्जा के मूल स्रोत सविता देव की आराधना है-
ॐ भूर्भुव: स्व:। तत्सवितुर्वरेण्यं। भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्।
हम भू यानी पृथ्वी लोक, भुवः यानी अन्तरिक्ष लोक और स्वः यानी द्यौ लोक में व्याप्त उस वरणीय सविता देव की किरणों का ध्यान करते हैं, जो हमारी बुद्धि को चिन्तन के लिए प्रकृष्ट रूप से प्रेरित करें।
क्या स्त्रियों में बौद्धिक चिन्तन की आवश्यकता नहीं है? पृथ्वी के प्रत्येक मानव का चिन्तन श्रेष्ठ होगा तब समाज का उत्कर्ष होगा। वेदों में यह कहीं नहीं लिखा गया है कि कौन वेद मंत्रों को पढ़ सकता है और कौन नहीं पढ़ सकता है, बल्कि यजुर्वेद में तो स्पष्ट रूप से कहा गया है-
यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः।
ब्रह्मराजन्याभ्या शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय ।। यजुर्वेद 26/2
जिस प्रकार कल्याण करने वाली इस वेद वाणी का ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, भृत्य, अपने, परायों सभी के लिए है।’ जिसे भी ज्ञान की अभिलाषा है उसे ज्ञान पाने का अधिकार है।
स्वामी विवेकानन्द जी कहते थे ‘हम जैव विकास की अवस्था नहीं बल्कि संकोच की अवस्था की तरफ बढ़ रहे हैं।’ यह बात आज के पढ़े-लिखे लोगों को असहज अवश्य करेगी क्योंकि उन्हें अपने अतीत का बोध ही नहीं है।
दुनिया के सबसे प्राचीन ग्रंथ के रूप में ऋग्वेद सभी को मान्य है। उस ऋग्वेद का प्रथम मंत्र है-
अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् | होतारं रत्नधातमम् ||
हे अग्निदेव !हम सब आपकी स्तुति करते है। आप ( अग्निदेव ) जो यज्ञ के पुरोहितों, सभी देवताओं, सभी ऋत्विजों, होताओं और याजकों को रत्नों से विभूषित कर उनका कल्याण करें।
कितना अद्भुत है कि वैदिक ऋषि ने प्रथम साक्षात्कार अग्नि का किया। यह साक्षात्कर लोक में व्याप्त उस शक्ति का है जो जगत को संचालित करती है। आज का विज्ञान भी यह स्वीकार करता है कि विभिन्न रूपों में अग्नि ही इस जगत को चलायमान किए हुए है, लेकिन अग्नि के रूप में प्रकट ऊर्जा का मूल स्रोत सूर्य है।
सूर्य से प्राप्त ऊर्जा ही अनेक रूपों में इस जगत में प्रकट होती है। शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक सभी ऊर्जा या शक्ति का मूल स्रोत सूर्य है। प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से सूर्य की ऊर्जा वनस्पतियों में संचित होती है जिसे हम भोज्य पदार्थ के रूप में ग्रहण करते हैं। मंत्रों के माध्यम से हमारी ऊर्जा की ग्राह्यता का विकास होता है या यह कहें कि हम सीधे सूर्य की रश्मियों के माध्यम से उस ऊर्जा से प्रभावित होते हैं जो हमारी बुद्धि और चिन्तन शक्ति का विकास करती है। यही कारण है कि गायत्री मंत्र वेद का चरमोत्कर्ष है।
कालान्तर में हमारे समाज के चिन्तन सामर्थ्य का ह्रास होते गया। परिणाम स्वरूप बाद के व्यवहार शास्त्रों में अनेक प्रकार के वितण्डाओं का जन्म हुआ और हम स्वयं अपने ज्ञान के प्रतिबंधक बनकर अधोपतन को प्राप्त हुए, लेकिन वेद ही हमारे अंतिम प्रमाण हैं।
साभार – डाॅ. चन्द्र प्रकाश सिंह
