वैदिक मान्यताएँ जीव (36) मरणोपरान्त जीव की गति (भाग-1)

शोक / श्रद्धांजलि सभाओं में दिवंगत आत्मा के लिये सद्गति की प्रार्थना की जाती है। प्रार्थना का अभिप्राय होता है कि दिवंगत आत्मा शुभ योनि को प्राप्त करे।

 

मरणोपरान्त आत्मा किस प्रकार दूसरे शरीर या योनि में जाता है , एक अत्यन्त गुह्य विषय है। केवल परमपिता परमात्मा को ही इसका निश्चित रूप से ज्ञान है। हाँ, ऋषि-मुनियों ने योग साधना से, आत्म-साक्षात्कार से, जन्म-मृत्यु के इन रहस्यों को किंचिन्मात्र जाना है परन्तु वे सर्वज्ञ न होने से पूर्णत: नहीं जानते कि जगत् नियन्ता ईश्वर ने क्या व्यवस्था की है।

उपनिषदों में जन्म-मृत्यु विषय पर कतिपय विवरण मिलते हैं। उपनिषद् के ऋषि-मुनियों के अनुसार मरणोपरान्त जीव की तीन गतियाँ होती हैं।

ये तीन गतियाँ वस्तुतः तीन मार्ग हैं जो जीव के तीन आध्यात्मिक स्तर के लिये निर्धारित हैं। मनुष्य आध्यात्मिक स्तर की दृष्टि से तीन प्रकार के होते हैं — एक वे जिन्हें हम देव कह सकते हैं, जिनका जीवन परोपकारमय, ईश्वर प्रणिधानमय एवं ज्ञानमय व यज्ञमय होता है। दूसरे वे जिन का जीवन पाप-पुण्य कर्मो से मिश्रित होता है ; इन्हें सामान्य भाषा में हम मनुष्य कहते हैं। तीसरे वे जो योनि से तो मानव होते हैं परन्तु उनके कर्म सदा पाशविक एवं पापयुक्त होते हैं, जो दूसरों का सदा अहित करते हैं और कभी किसी का भला कर ही नहीं सकते ; इन्हें दस्यु या राक्षस कहा जाता है।

अथर्ववेद का मन्त्र (11.8.33) तीन गतियों का उल्लेख करता है :
प्रथमेन प्रमारेण त्रेधा विष्वङ् वि गच्छति।
अद एकेन गच्छत्यिद एकेन गच्छतीहैकेन नि षेवते।।

अर्थात् प्रथम मरण पर यानी मृत्यु के उपरान्त (द्वितीय मरण महामरण/ प्रलयकाल है), जीव तीन प्रकार की गति (मार्ग) से जाता है। एक से मोक्ष को पाता है। एक से पशु-पक्षी-कीट- पतंग आदि निम्न योनियों को जाता है और एक से मनुष्ययोनि को जाता है।

ऋग्वेद के मन्त्र (10.88.15) में दो मार्गों का उल्लेख है, मोक्ष और आवागमन (मनुष्य एवं मनुष्येतर योनियों में जन्म-मरण) :

द्वे स्रुति अशृणवं पितृणामहं
देवानामुत मर्त्यानाम्।
ताभ्यामिदं विश्वमेजत्समेति
यदन्तरा पितरं मातरं च।।

अर्थात् मैं मरणधर्मा प्राणियों के दो मार्गों को सुनाता हूँ। एक (वियोजक) देवताओं का और दूसरा (संयोजक) पितरों का। यह जगत् जो माता पिता के बीच जन्म लेने वाला है, चेष्टा करता हुआ , उन दोनों देवयान और पितृयाण मार्गों द्वारा अपने-अपने कर्मानुसार माता-पिता को प्राप्त होता है।

देवयान और पितृयाण लौकिक अर्थ में कोई मार्ग नहीं है ; ये दो गतियाँ ज्योतिर्मय अवस्थाएँ हैं, या कहो दिव्य विधियाँ (Divine Processes) हैं। इन से जीव ब्रह्मलोक (मुक्ति) को प्राप्त होता है जिसे देवयान कहते हैं या पुनः माता-पिता को प्राप्त कर शरीर धारण करता है जिसे पितृयाण कहते हैं।

वेद के उपरि-उद्धत मन्त्र में ‘पितर’ वे संयोजक वायु/ ऊर्जा विशेष हैं, जो दिवंगत जीव के सूक्ष्म और कारण शरीर को पोषित करके पुनः शरीर-धारण के योग्य बनाते हैं और ‘देव’ वे वियोजक (विघटन करने वाले) वायु/ ऊर्जा विशेष हैं जो जीव के प्रकृति से बने कारण शरीर और सूक्ष्म शरीर को जीव/आत्मा से वियुक्त कर देते हैं। यही आत्मा का प्रकृति से वियोग है, परमात्मा से संयोग।

अब जीव ब्रह्म में वास करता है। योगदर्शन में इसे ‘पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः’ कहा है।
अर्थात् प्रकृति के गुण अपना कार्य सम्पन्न होने पर प्रकृति में लीन हो जाते हैं।

बृहदारणयक और छान्दोग्य उपनिषद् में उपरोक्त पितृयाण को दो भागों में विभक्त कर दिया गया है। एक को पितृयाण और दूसरे को आवागमन कहा गया है। पितृयाण केवल काममय पुण्य कर्म वालों के लिये और आवागमन सामान्य मनुष्यों एवं अन्य प्राणियों के लिये है।
( शेष भाग 2 में )
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पादपाठ

A problem cannot be solved on the level on which it was created.
— Albert Einstein

किसी भी समस्या का हल उसी स्तर पर नहीं ढूंढा जा सकता जिस स्तर पर वह उत्पन्न हुई है।
— एल्बर्ट आईनस्टीन
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Its English version is available on our Page :
THE VEDIC TRINITY
Soul
36) Soul’s Journey after Death (Part 1)
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विद्यासागर वर्मा
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