डॉ. पवन विजय : शुभ महालया

कुल देवी, ग्राम देवी, अंचल देवी से लेकर भारत माता तक मातृ देवियों के आशीष, उनके द्वारा पोषित संतानों से मिल कर इस राष्ट्र का अभ्युदय हुआ है। ऋग्वेद के दशम मंडल के १० वें अध्याय के १२५ वें सूक्त की आठ ऋचाएं हैं जिन्हें देवी सूक्त कहा जाता है जिसकी द्रष्टा महर्षि ब्रह्मज्ञानिनी वाक् थीं। वाक् ने प्रकृति की सर्जना शक्ति के साथ तादात्म्य कर देवी सूक्त उसी का उद्घाटन किया। इस सूक्त के अनुसार देवी ही इस सम्पूर्ण जगत की अधिष्ठात्री हैं। पितृ व्यवस्था भी देवी के ही अधीन है।

अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम

मैं इस जगत के पितृरूप आकाश को सर्वाधिष्ठान स्वरूप परमात्मा के ऊपर उत्पन्न करती हूँ। देवी घोषित करती हैं कि ‘मैं ही अखिल भुवन में व्याप्त हूँ। यह जगत मेरी ही अभिव्यक्ति है।

देवी के व्यापक स्वरूप को लोक पचरा में उद्धरित करता है, देवी मोरे अँगना में आईं या जगतारन घर मे दियरा बार आई हों के माध्यम से लोक उनकी सहज उपलब्धि का बखान करता है। लोक परम्परा देवी से संवाद स्थापित करने की बात साक्षी है। यहां देवी घर आंगन में लगे नीम के पेड़ पर झूलना डाल कर झूलती हैं,

निमिया के डरिया मईया नावेली झुलनवा होकि झूलई लागीं ना

स्त्रियां माँ से अपनी सहज बातचीत करती हैं, बात बात में वे अपने घर परिवार की समृद्धि का आशीष बड़ी चतुराई से मांगती हैं, माँ उन्हें पूरा करने का वचन भी देती हैं।

लोक और शास्त्र दोनों की परंपरा में शक्ति की सर्वोच्चता है। जब देवगण असुरों से हारने लगते हैं तो वे माँ दुर्गा का आह्वान करते हैं। आनंद मंगल और न्याय के विजय का एकमात्र केंद्र माँ हैं। माँ का हर रूप संतानों के लिए कल्याणकारी है। ममता इस ब्रह्मांड का आधार है। माता का आदर पाने के लिए त्रिदेव शिशु रूप में आते हैं किंतु जब जब मातृत्व का अपमान होता है, जगतजननी महाकाली बनकर पापियों का रक्तपान करती हैं। उनके मुंडों से अपना सिंगार करती हैं।

माँ सर्वव्यापी हैं, बालक का रुदन चाहे वह चींटी के पैर रखने जितना तेज हो उसके कानों में पड़ ही जाती है। वह दौड़कर आती है अपने बच्चे को दुलारने। हम प्रायः माता के जागरण की बात करते हैं पर माता सोती कब है? सोए तो हम हैं, वास्तविक जागरण की आवश्यकता हमें हैं। मैं सोचता हूँ वह कितना अद्भुत क्षण होगा जब सुबह सुबह माँ आए और स्नेह से उठाए, दुलार कर उठाये, जागृत कर दे। जीवन चैतन्य और ज्योतिपुंज हो उठे।

या देवी सर्वभूतेषु, मातृ रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

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