देवांशु झा : हिन्दू अस्मिता के नायक
मुझे ध्यान आता है कि बचपन में हम संघ को लगभग अछूत मानते थे। अगर अछूत न कहें तो त्यक्त..त्याज्य कहना ही होगा। हमारा ग्रामीण समाज पढ़ा-लिखा था।अधिकांश कांग्रेसी या वामपंथी विचारधारा के लोग थे। उन पर बंगाली आधुनिकता का बड़ा भारी-भरकम प्रभाव था।वे सब एक तरह से कथित बंगाली पुनर्जागरण से अभिभूत आक्रान्त थे।अपनी संस्कृति का मान था। किन्तु दैन्यभाव अधिक था। तब हमारे गांव के पढ़े-लिखे लोगों की सांध्यवार्ताएं कांग्रेस केन्द्रित हुआ करती थीं। नेहरूवियन आदर्श सर्वोपरि था। साहित्य आदि पर जो थोड़ी-बहुत बातचीत होती थी, वह बंगाली कवि-लेखकों से आच्छादित रहती। उन दिनों में संघ लगभग अनाम था। संघ के किसी अवदान की कोई चर्चा हमने अपने गांव में सुनी हो–मुझे ध्यान नहीं आता।
इतना अवश्य ध्यान है कि संघ को हम किसी तरह के सम्मान की दृष्टि से नहीं देखते थे। अच्छा! संघी हो…संघी यानी अपढ़, मुसलमानों का जन्मना बैरी और भारत विभाजन का अग्रणी। एक ऐसी विचारधारा के पोषक लोग जो भारत की गुलाबी गंगा जमनी तहजीब के विरोधी थे। कांग्रेस के नेताओं, यथा नेहरू, इंदिरा गांधी आदि को हम महान मानते थे। देवी-देवता स्वरूप।
उन दिनों यह माना जाता कि जो पढ़ा-लिखा है वह अनिवार्यतः मार्क्सवादी नेहरूवियन होगा। इस विचारधारा की जड़ें आजादी के बाद के प्रारम्भिक दशकों में गहरी हुईं। यह हिन्दुओं में पनपायी गई आत्मघृणा या आत्मविस्मृति का एक क्लैसिकल युग था। जहां कांग्रेसी वामपंथी विचारधारा का प्रचार प्रसार बड़े ही शांतिपूर्ण तरीके से हो रहा था। सत्ता में बैठे शीर्ष के लोगों ने ऐसी हाथ की सफ़ाई दिखलाई कि हमारी स्मृति, हमारा भूत, हमारी परम्परा, हमारी जातीय चेतना, हमारा आत्माभिमान सबकुछ धुंधला होता चला गया। लगातार सत्ता में रहने वाली कांग्रेस ने निर्भ्रांत होकर इस कार्य को संपन्न किया। कहीं से कोई प्रतिरोध नहीं था। जो क्षणिक प्रतिरोध हुआ भी, वह केवल राजनीतिक था। किन्तु उनमें और कांग्रेस की विचारधारा में कोई मूलभूत अंतर नहीं देखा जा सकता। सत्तर के दशक में कांग्रेस के विरोध में खड़े हुए अन्य राजनीतिक दल और कांग्रेस में कोई आधारभूत भेद नहीं दीख पड़ता। सांस्कृतिक रूप से वे समान थे। वे भी उसी कांग्रेसी आइडियोलॉजी से चालित थे। एक शाखा भर–जिसे अपने अलग होने का भ्रम था। इसका प्रमाण जेपी आंदोलन से उपजी राजनीतिक विरासत से मिल जाता है। अगर वे नैतिक, सैद्धांतिक रूप से कुछ भिन्न रहे होते तो आज उनकी यह दशा न रही होती। हम कालेज में प्रवेश के समय(इंटरमीडिएट) तक संघ से लगभग अनभिज्ञ थे। इतना ही याद आता है कि हेडगेवार और गोलवलकर जैसों को गोडसे के बराबर ठहराते थे। वे हत्यारों के नेता थे! हम हेडगेवार के प्रशंसको का उपहास करते।
राम जन्मभूमि आंदोलन का ज्वार जब तीव्र हुआ तब मैंने विश्व हिंदू परिषद और संघ को जाना। इसे मेरा सनातनी संस्कार कहिए कि मैं राम मंदिर आंदोलन से कभी तटस्थ नहीं रहा। उन दिनों हमारे आसपास के ही कुछ बड़े लोग राम मंदिर आंदोलन के विरोधी थे। संघ और भाजपा को अछूत की तरह देखने की संस्कृति पनपायी गई थी। इसी दृष्टि ने आडवाणी और वाजपेयी जैसे नेताओं को लंबे समय तक कटघरे में रखा। मीडिया उनके साथ सौतेला व्यवहार करता रहा। पूर्वाग्रही दृष्टि रही उनकी। और नरेन्द्र मोदी को तो उसने दैत्य ही घोषित कर दिया । यही वह कैंसिल कल्चर है जिसकी बात मोदी ने अपने दूसरे कार्यकाल के अंतिम संसदीय भाषण में की।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का यह जो अंधा विरोध था, वह केवल राजनीतिक नहीं था। बल्कि सांस्कृतिक, अकादमिक भी था। संघ से सम्बद्ध कोई भी पढ़ा लिखा व्यक्ति संघी कहलाया जाता। संघी तो वह होता ही परन्तु कांग्रेसी संस्कृति का समाज उन्हें संघी कहते हुए मूर्ख और दंगाई जैसे शब्दों की भी नत्थी कर देता था। मैं देख सकता हूं कि आज तक किसी खूंखार आतंकवादी के लिए भी उनके मन में उतनी घृणा नहीं हुई जितनी घृणा संघ के विचारकों के लिए रही। अब उसी संघ के विचारों पर सरकार केंद्र में एक पूरा दशक बिता चुकी है। इन वर्षों में भारत में ऐतिहासिक परिवर्तन हुए। संभवतः हिन्दुओं ने इस परिवर्तन की कभी कल्पना भी न की होगी। लेकिन उन्हें कैंसिल करने की संस्कृति अभी लगभग पूर्ववत है। कांग्रेसी विचारधारा हमारी पीढ़ियों में पैठ बना चुकी है। इसलिए ऐसा कोई भी व्यक्ति जो संघ का प्रशंसक या उसका करीबी है–बौद्धिक परिदृश्य से दूर रहता है। वह बौद्धिक या अकादमिक परिदृश्य जो पिछले साठ सत्तर वर्षों में इतिहास, साहित्य, कला, संगीत आदि में गढ़ा गया। जिसके नियंता, निर्देशक विचारधारा विशेष के लोग होते रहे।
आज आडवाणी जी को भारत रत्न दिया गया तो लिबरल्स छाती पीट रहे हैं। लोकतंत्र की हत्या का विलाप कर रहे। किन्तु उन्हें युग परिवर्तन का अहसास नहीं है। वे अभी तक नेहरूवियन नीमबेहोशी में है। उन्हें समझना होगा कि मोदी युग एक प्रस्थान है। आडवाणी को भारत रत्न दिए जाने के साथ ही संघ के प्रखर विचारकों, योद्धाओं को देशव्यापी स्वीकार्यता दिलाए जाने का आरंभ भी हो चुका है। डॉक्टर हेडगेवार, गुरु गोलवलकर, दत्तोपंत ठेंगड़ी, नानाजी देशमुख, एकनाथ जी रानाडे और दीन दयाल उपाध्याय जैसे बड़े मनुष्यों को शत्रु घोषित करने वाली राजनीतिक संस्कृति का पराभव होगा। ऐसा हमारा दृढ़ विश्वास है। ये महापुरुष देशव्यापी स्वीकार्यता पाएंगे।
लोग इनके संघर्ष और तप त्याग से परिचित होंगे। जान पाएंगे कि हिन्दुओं के लिए इन महापुरुषों ने कैसे अपना जीवन होम कर दिया। आज भारत का विशाल समाज देख रहा कि उसके नायक कौन हैं। बाबर, अकबर या महाराणा…. शिवाजी! वे, जिन्होंने बाबरी मस्जिद को बनाए रखना भारत के लिए आवश्यक माना, जिन्होंने सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार का उत्कट विरोध किया या वे जिन्होंने गुलामी के इन प्रतीकों का ध्वंस कर भारतीय सांस्कृतिक अस्मिता की पुनर्प्रतिष्ठा का मार्ग प्रशस्त किया। उत्तर आपके सामने है।गांधी अब लगभग अप्रासंगिक हो चुके हैं। स्वच्छता और स्वदेशी आदि तो ठीक है लेकिन हिन्दू जाति को अगर जीवित रहना है, उसे अगर अपने धार्मिक सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों की रक्षा करनी है, मान के साथ देवालयों में जाना है। राक्षसों से दृढ़, अडिग, एकमत होकर लड़ना है और धर्म के मार्ग पर चलना है तो राम के दिखाए रास्ते पर चलना होगा। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि ऊपर जिन महापुरुषों का मैंने जिक्र किया है, वे अपने जीवन में रामाचरण को गांधी के मुकाबले कहीं अधिक दिव्यता से उतार पाए हैं।