वैदिक मान्यताएँ : ईश्वर व ईश्वर का स्वरूप (भाग 2)
वह परमपुरुष बिना शरीर के, बिना इन्द्रियों के ऐसे काम करता है मानो उसके असंख्य सिर हों, असंख्य आँखें हों और असंख्य पैर हों । यजुर्वेद पुरुषसूक्त का मन्त्र है :
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
स भूमि ँ सर्वत स्पृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ।।
— यजुर्वेद 31-1


वह परमपुरुष जिसके मानों हज़ारों सिर, हज़ारों आँखें और हज़ारों पाँव हैं, समस्त भूमि (दृश्य जगत्, ब्रह्माण्ड) को स्पर्श करता हुआ अर्थात् घेरकर, प्राणिमात्र के हृदयदेश (दशांगुलम्-दस अवयवों वाले-पाँच प्राण, मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार और दसवाँ जीव) में स्थित है । अर्थात् वह परमपुरुष समस्त ब्रह्माण्ड और समस्त प्राणिमात्र में विद्यमान है।
ईश्वर की कोई प्रतिमा नहीं, मूर्ति नहीं, फिर भी वह त्रिमूर्ति कहलाता है । भक्त जन उसे ब्रह्मा, विष्णु और महेश अर्थात् सृष्टि के कर्ता, धर्ता और संहर्ता के रूप में देखते हैं और पूजा करते हैं।
पुराणों में इस त्रिमूर्ति का विशेष वर्णन मिलता है । पुराणों में यह भी कहा गया है कि ब्रह्मा की पत्नी सरस्वती है, विष्णु की लक्ष्मी और महेश या शिव की पार्वती । ब्रह्मा-सरस्वती, विष्णु-लक्ष्मी और शिव-पार्वती के संयोग को शाब्दिक न लेकर लाक्षणिक लेना चाहिये । वस्तुतः सरस्वती (ज्ञान) लक्ष्मी (धन) और पार्वती (शक्ति) भी परमात्मा की शक्तियों के नाम हैं।

सृष्टि की रचना के लिये अपार ज्ञान का होना आवश्यक है, सृष्टि के संचालन एवं पालन के लिये अनन्त ऐश्वर्य, धन-धान्य का होना आवश्यक है और सृष्टि के संहार के लिये अथाह शक्ति का होना आवश्यक है । इसलिये ब्रह्मा-सरस्वती, विष्णु-लक्ष्मी और शिव-पार्वती के युगलबन्दी के आख्यान मिलते हैं।

वस्तुतः ये सभी शक्तियाँ एक ईश्वर में वास करती हैं जो कि इस सृष्टि का कर्ता, धर्ता और संहर्ता है । ये सभी एक ईश्वर के नाम हैं न कि विभिन्न देवी देवताओं के। अथर्ववेद (13.4.21) का मंत्रांश है :
सर्वे अस्मिन् देवा एकवृत्तो भवन्ति।
अर्थात् इसमें (ईश्वर में) सभी देवता (शक्तियां) एकवृत्त (एक) हो जाते हैं।
वेदों, उपनिषदों एवं अन्य ग्रन्थों में परमात्मा के असंख्य शक्तिद्योतक नामों से, विशेषकर अग्नि, इन्द्र, रुद्र, वरुण, सूर्य, मरुत से, कुछ पाश्चात्य दार्शनिक भ्रमित हो गये और उन्होंने वैदिक धर्म पर अनेकेश्वरवादी (Polytheism) होने का आरोप लगाया परन्तु स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थप्रकाश के प्रथम सम्मुल्लास (अध्याय) में ईश्वर के 100 नामों का उल्लेख कर के स्पष्ट किया कि ये सभो एक ईश्वर की विविध शक्तियों के नाम हैं। जिस प्रकार एक ही व्यक्ति विभिन्न दायित्व के कारण पिता, भाई व अध्यापक कहलाता है, उसी प्रकार ईश्वर विविध गुण, कर्म, स्वभाव के कारण विविध नामों से जाना जाता है।
वैदिक वाङ्गमय के मूर्धन्य जर्मन विद्वान मैक्समूलर ने भी ‘‘भारत: हमें क्या शिक्षा दे सकता है ?’’ नामक व्याख्यान संग्रह में वैदिक देवता (Deities) सम्बन्धी व्याख्यान में अनेक ईश्वरवाद का भरसक खण्डन किया और स्पष्ट शब्दों में घोषित किया-
“वे (देवताओं के नाम) सभी परोक्ष के द्योतक थे ; दृश्य के पीछे अदृश्य, सान्त के भीतर अनन्त, अपरा के पीछे परा, दिव्य, सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान् के द्योतक थे । वे नाम उसको व्यक्त नहीं कर पाये जो स्वभाव से अनिर्वचनीय है और अनिर्वचनीय रहेगा । परन्तु वह अवर्णनीय सत्ता स्वयं शाब्दिक अभिव्यक्ति की असफलता के अनन्तर (बावजूद) मुनियों और कवियों के मन में सदा बनी रही, कभी परिछिन्न या लुप्त नहीं हुई परन्तु नये और परिष्कृत नामों के लिये कहती रही ; नहीं, अब भी उन्हीं नामों से पुकारे जाने को कहती है और जब तक पृथ्वी पर मानव है, उन्हीं नामों से पुकारे जाने को कहती रहेगी’’।
उस अवर्णनीय शक्ति को जिसका ऋषि, मुनि, भक्तजन विभिन्न नामों से आह्नान करते हैं, संक्षेप में, हम उसे सर्वज्ञ, सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान् कह सकते हैं ।
विश्वविख्यात वैज्ञानिक न्यूटन की ईश्वर सम्बन्धी अवधारणा भी कुछ इसी प्रकार की है :
इसलिये हमें एक ईश्वर की सत्ता को स्वीकारना चाहिये , जो अनन्त , शाश्वत, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान् है; सर्व सृष्टि का कर्ता, सर्वज्ञ, अत्यन्त न्यायकारी, सर्वोत्तम तथा परम पवित्र है।
