सर्वेश तिवारी श्रीमुख : गणेश चतुर्थी.. दाग अच्छे हैं!
आज भादो अंजोर की चतुर्थी है। हमारे यहाँ इसे ढेला चौथ भी कहते हैं। लोक मान्यता है कि इस चतुर्थी के चन्द्रमा को देख लेने से झूठा कलंक लगता है। वैसे कलंक लगने की यह कथा अत्यंत प्राचीन है। भगवान श्रीकृष्ण ने भी एक बार चतुर्थी के चन्द्र को देख लिया था, जिसके बाद उनके ही दरबारियों ने उनपर मणी की चोरी का कलंक लगा दिया था। तो बात यह है कि चतुर्थी के इस शापित चन्द्र के प्रकोप से स्वयं नारायण न बच सके तो मानुस की क्या बिसात?

शास्त्र कहते हैं कि चतुर्थी का चन्द्र देख लेने से लगने वाले दोष के निराकरण के लिए भगवान श्रीकृष्ण की वह कथा सुन लेनी चाहिये, दोष क्षीण हो जाता है। पर यह देश केवल शास्त्रज्ञों का ही तो नहीं… तो लोक के सामान्य जन ने परम्परा गढ़ी कि यदि चन्द्रमा को देख लिए हों तो चुपके से किसी के आंगन में ढेला फेंक दीजिये। उस घर की स्त्रियां जितनी गालियां देंगी, दोष उतना ही कम हो जाएगा। और इसी कारण इस चौथ का नाम हो गया ढेला चौथ… है न मजेदार?
अब सुनिये! यह कथा इतना स्पष्ट कर देती है कि कलंक लगना जीवन की एक सामान्य घटना है। यह किसी के साथ भी हो सकता है। आपके ऊपर कभी भी, कोई भी कलंक लग सकता है, और उसमें आपका कोई दोष नहीं होता। कोई भी धूर्त आपके ऊपर कोई आरोप लगा दे तो दस-बीस लोग उसे अवश्य ही सच मान लेंगे। आप कितनी भी सफाई दे लें, अपनी सत्यता के कितने भी प्रमाण ला दें, पर असंख्य लोग तब भी संतुष्ट नहीं होंगे। एक दाग रह ही जायेगा। तो उचित यही है कि ऐसे दागों पर ध्यान देना छोड़ कर अपना जीवन जिया जाय।
एक मजेदार तथ्य यह भी है कि कलंक सदैव सज्जनों पर ही लगता है। दुर्जनों पर कभी झूठे आरोप नहीं लगते! कोई झूठा आरोप लगाए तो वह उसे सच कर जाएगा, और फिर भी उसका कुछ नहीं बिगड़ेगा। दाग साफ कपड़ों पर लगें तभी चमकते हैं, गंदे कपड़ों पर हजार छींटे पड़ें तब भी उनपर किसी की दृष्टि नहीं जाती।
एक बात और है। आपका जीवन जितना सार्वजनिक होगा, दाग लगने की संभावना उतनी ही बढ़ती जाएगी। दाग से बचने का एक उपाय यही हो सकता है कि आप स्वयं को एक सीमित दायरे में बांध लें। न बाहर निकलेंगे, न दाग लगेंगे… न कुछ करेंगे, न बिगड़ने का भय होगा… पर सारे लोग दाग के भय से छिप कर रहने लगे, यह भी तो उचित नहीं। कुछ को तो बाहर निकलना ही होगा न…
भगवान श्रीकृष्ण पर उनका ही दरबारी कलंक लगा देता है, जगत जननी माता जानकी पर एक दरिद्र रजक कलंक लगा देता है, तो हम सामान्य जन क्या ही बचेंगे। और सुनिये न! बेदाग जिये भी तो क्या जिये दोस्त…
मैं बस एक बात कभी समझ नहीं पाता कि बुजुर्गों ने यह ढेला फेंकने की परम्परा क्यों गढ़ी होगी? पता नहीं! हर बात समझ में आ जाय, यह जरूरी तो नहीं।
तो याद रहे, आज भाद्रपद शुक्लपक्ष की चतुर्थी है। भूल कर भी रात नौ बजे तक दक्षिण- पश्चिम आकाश की ओर नहीं देखना है।
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।
