सुरेंद्र किशोर : नेहरू और प्रेस
स्वाभिमानी पत्रकार को नेहरू सरकार में
राज्य मंत्री बनना मंजूर नहीं था

मशहूर पत्रकार बी.शिवा राव को सन 1952 में प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) बनाना चाहते थे।
पर, शिवाराव कैबिनेट का दर्जा चाहते थे।
नतीजतन बात नहीं बनी।
उनकी जगह बी.वी.केसकर राज्य मंत्री बन गये।
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नेहरू ‘द हिन्दू’ को देश का सर्वोत्तम अखबार मानते थे।
उसके पत्रकार को भी अन्य पत्रकारों से बेहतर मानते थे।
बी.शिवा राव पहले द हिन्दू में काम कर चुके थे।
बाद में बारी -बारी से संविधान सभा और लोक सभा के सदस्य बने।
द हिन्दू की आर्थिक नीति स्वतंत्र व्यापार की थी
जबकि नेहरू समाजवादी थे।
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राज गोपालाचारी भी स्वतंत्र व्यापार के कट्टर समर्थक थे।
फिर भी नेहरू डा.राजेंद्र प्रसाद को नहीं बल्कि राजा जी को ही राष्ट्रपति बनवाना चाहते थे।
इनके कारणों का अनुमान लगा लीजिए।
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दुर्गा दास बड़े पत्रकार थे।
वे हिदुस्तान टाइम्स के संपादक भी रहे।
संविधान सभा का जब गठन हो रहा था तो यू.पी.के मुख्य मंत्री जी.बी.पंत ने संविधान सभा की सदस्याता के लिए दुर्गादास के नाम की सिफारिश की।
पर नेहरू ने उनका नाम काट दिया।
क्योंकि दुर्गा दास,पटेल,पंत और मौलाना आजाद के करीबी माने जाते थे।
(टाइम्स आॅफ इंडिया के बिहार संवाददाता जितेंद्र सिंह मूल रूप से यू.पी.के थे।
इलाहाबाद में रह चुके थे।
डा.लोहिया के करीबी थे।
समाजवादी थे।
जितेंद्र बाबू ने ही धर्मवीर भारती की लोहिया से पहली मुलाकात करवाई थी।
जब जितेंद्र सिंह बिहार में टाइम्स आफ इंडिया के लिए काम करने लगे तो वे बिहार के शीर्ष समाजवादी नेताओं से कुछ अधिक ही मिलते रहे।
दो शीर्ष समाजवादी नेताओं की आपस में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी।
जितेंद्र बाबू नेता-क से मिलते तो उनसे कहते कि आप नेता ख से मिलकर काम करिए।
जब ख से मिलते तो उनसे कहते कि आप क से मिल कर काम करिए।
नतीजतन अलग -अलग दोनों को लग गया कि यह तो उसका आदमी है ,मेरा नहीं।
एक बार जितेंद्र बाबू ने मुझसे कहा कि क्या मैं जीवन भर यही लिखता रहूं कि फलां नेता ने क्या कहा और फलां ने क्या कहा ?
तब कर्पूरी जी की सरकार थी।
मैंने कर्पूरी जी के एक करीबी नेता से पूछा–क्या जितेंद्र बाबू को एम.एल.सी.बनाने के बारे में नहीं सोचा गया ?
नेता ने कहा कि कैसे सोचा जाए ? कौन सोचे ?
क नेता कहता है कि वह तो ख का आदमी है।ख कहता है कि वह तो क के आदमी है।
मैंने यह सब इसलिए लिखा कि आजादी के बाद से ही अधिकतर शीर्ष नेतागण अपना -अपना आदमी बनाने में लगे रहे।
प्रतिभा,योग्यता और योगदान आदि की बातें पीछे रह गयीं।
खैर, आज तो राजनीति का घोर कलियुग है !!!
जो सुप्रीमो का जितना भयादोहन कर ले,उसकी ही चांदी !)
स्वाभाविक ही था,उसके बाद दुर्गा दास ने अपने लेखन में नेहरू की गलतियों को उजागर करना शुरू कर दिया।
सरकार है तो गलतियां तो करेंगी ही।
एक बार नेहरू ने दुर्गादास को बुलाकर उन्हें बुरी तरह फटकारा।
कहा कि तुम तो बहुत घटिया आदमी हो।
यू आर मीनेस्ट मैन आई हैव मेट एंड लोएस्ट फाॅर्म आॅफ ह्यूमन एक्जिटेंस।
कुछ अंतराल के बाद अंततः दुर्गादास नहीं ‘‘सुधरे’’ तो नेहरू के सचिव ने अखबार के मालिक घनश्याम दास बिरला से बात की और उसके बाद दुर्गादास की संपादक पद से छुट्टी कर दी गयी।
वैसे अखबार के मालिक ने कहा था कि वैसे तो मैं अखबार के काम में हस्तक्षेप नहीं करता,किंतु मुझे भी लगता है कि दुर्गादास का लेखन पीत पत्रकारिता ही है।ं
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हालांकि घनश्याम दास बिरला ने साठ के दशक में पटना के अपने अखबार सर्चलाइट के काम में हस्तक्षेप नहीं ही किया।
उन दिनों बिहार में के.बी.सहाय की सरकार थी।
सर्चलाइट के संपादक टी.जे.एस.जार्ज को सहाय सरकार ने उनके भ्रष्टाचार विरोधी लेखन के कारण जेल भेज दिया।
उन पर राष्ट्रद्रोह का आरोप लगा कर हजारीबाग जेल भेजा गया था।
बिरला जी ने पहले ही हस्तक्षेप किया होता तो जार्ज हटा दिए गए होते।
वैसे में जार्ज को जेल भेजने की जरूरत ही नहीं पड़ती।
पर, कहां नेहरू और कहां सहाय ?
