मौन को कोलाहल निगल लेता है , साधना को संभोग
पुस्तक समीक्षा -डॉ. अर्चना प्रकाश
दयानंद पांडेय का सद्यः प्रकशित उपन्यास “विपश्यना में प्रेम ” साहित्य जगत में तहलका मचा रहा है।भगवतीचरण वर्मा की चित्रलेखा , चंद्रकांता संतति या फिर पाक़ीज़ा फ़िल्म की तरह । उपन्यास का विषय ,इस की पृष्ठभूमि,इस के पात्र, विशेषतः विनय व मल्लिका जो रशियन है ,सभी अद्भुत व अलौकिक हैं। उपन्यास का प्रारंभ विपश्यना के ध्यान शिविर से होता है ,जिस में रूस ऑस्ट्रेलिया , व भारत के कईं शहरों के युगल जोड़े व एकल लोग भी सम्मिलित हैं । सब की अलग समस्याएं हैं और सभी सार्थक समाधान हेतु इस शिविर में आए हैं । यहां प्रश्न है कि ऐसे शिविरों में , मौन की राजधानी में,अपने भीतर के शोर में समस्याओं के समाधान मिल सकते हैं क्या ? यही प्रश्न उपन्यासकार का मुख्य मंतव्य है। उपन्यास में साधना , काम, वासना और संयोग व शांति साथ-साथ चलते हैं ।दारिया का किरदार गढ़ते हुए लेखक पाठकों के समक्ष सर्वकालिक व सार्वभौमिक सत्य उद्घाटित करते हैं कि -“विराट दुनिया है स्त्री की देह और स्त्री का मन उस से भी विराट है।” उस के निर्णय के बिना आप उसे न देख सकते हैं ,न पढ़ सकते हैं ।कथा में विपश्यना में प्रेम और प्रेम में विपश्यना दोनों एक दूसरे में आत्मसात हो चुके हैं । या ये कह सकते हैं कि ध्यान व ज्ञान के लिए गए थे मिल गया प्रेम पूरी सहजता पूरी उपलब्धि के साथ।
एक स्थान पर गोरख बाबा का निर्गुण एवम ग़ालिब के सगुण को भी एक सूत्र में बांधने का अनूठा प्रयास है। रशियन सुंदरी दारिया और भारतीय अधेड़ विनय के कामसूत्री मनोशारीरिक प्रयोगों से चित्रलेखा के कुमारगिरि की पाप पुण्य की विवेचना मन मे आती है ।फिर पृश्न उठता है कि ध्यान में साधना या काम और वासना?
लेकिन इस ट्राई में कितना प्रेम है यह पाठक स्वयं ही तय करें। पूरी कथा में ध्यान में देह ,और देह में ध्यान ,अपेक्षा व परिणाम का अंतर हैरान करता है। विपश्यना शिविर के बंद कपाटों के भीतर के क्रिया कलापों का कौतूहल उपन्यास को अंत तक पढ़ने के लिए विवश करता है। विपश्यना शिविरों की तल्ख सच्चाइयां भी लेखक उद्घाटित करते हैं कि – ध्यान शिविर पूर्ण होने के तत्काल बाद विपश्यना के विपरीत शिविर आचरण का अखाड़ा बन जाता है । मौन को कोलाहल निगल लेता है और साधना को संभोग। कितने लोग निष्कासित किए जाते हैं।
पता चलता है कि -इंग्लैंड का लड़का और उस की गर्लफ्रैंड रहने की सस्ती जगह तलाश करते हुए इस शिविर में आए। और महाराष्ट्र के दर्जन भर लोग हवा पानी बदलने व घूमने के लिए इस शिविर में आए हैं।
इस कथा के साथ सीता का वनवास व यशोधरा की व्यथाओं की सहकथाओं के साथ ग्रामीण महिलाओं के भूत व ओझाओं की करतूतों के व्यंग्य उपन्यासकार के कथा सौष्ठव की विशेषता है। परिस्थिति व पात्र के अनुसार भाषा संगीतमय चित्रमय व शैली अद्भुत है। कुछ उदाहरण —
1- “अचानक उस का ध्यान टूटता है। एक गोरी सी रशियन स्त्री के अकुलाए वक्ष पर उस की निगाह धंस जाती है। —–जब मन में देह का ध्यान आए तब सारे ध्यान बिला जाते हैं ।”
2- अब मौन में ही सोना था,मौन में ही जागना था ,मौन में ही खाना था। मौन क्या था ,मन के शोर में और और जलना था।तो क्या मौन मन को जला डालता है ? पता नहीं ,पर अभी तो यह मौन मन को सुलगा रहा था ।”
3 – “मौन की मीठी आंच एक अजीब सी दुनिया में ले जा रही थी। यह कौन सी दुनिया थी और उसी दुनिया से दूर अपनी दुनिया में रहते हैं , विनय और मल्लिका ।”
इस उपन्यास में बहुत कुछ ऐसा है जो नित नवीन व अति रोमांचकारी है। चाहे वह प्रेम हो या दैनिक दिनचर्या ।इश्क के लिए वे लिखते हैं –“इश्क का कोई सैटिल्ड ला नहीं है, कि ऐसे करो तो होगा वैसे नहीं होगा ।इश्क की कोई एक राह नहीं होती । यह हाईवे भी हो सकता है,पगडंडी भी,गड्ढे वाली सड़क भी,कोई तंग गली भी,खेत भी, तालाब भी, बाग आकाश, धरती , पानी , कोई भी राह दे सकता है ।”
उपन्यास की शैली जादुई शब्दों से परिपूर्ण है जैसे -आन पान (सांस लेना) , ठुमक-ठुमक कर चलता हुआ सूर्य ,नींद की नाव , चांद भी जैसे स्लीवलेस हो गया। उपन्यासकर ने कई जगहों पर शब्दों के द्वारा पात्रों के , शिविर के, एवं परिवेश के चित्र उकेरे हैं । बेबाक एवं बोल्ड लेखन उन की विशेषता है ।
इस उपन्यास के द्वारा लेखक एक अन्य बिंदु पर भी ध्यानाकर्षण कराते हैं कि आज भी निःसंतानता स्त्री के लिए ऐसा अभिशाप है जो उसे परिवारिक व सामाजिक त्रासदी में डाल देता है। यहां तक कि रशियन दारिया भी इस से बाहर नहीं निकल पाती। बच्चे के लिए ही मल्लिका विनय के सानिध्य में आती है। वह उसे ट्राई करती है और सफल भी होती है। जिस की जानकारी शिविर समाप्त होने के कुछ महीने बाद विनय के पास आए मल्लिका के फ़ोन से होती है जब वह कहती है- मैं तुम्हारे बेटे की मां बन गई हूं । हां , बिल्कुल तुम पर गया है ,फिर वह कहती है थैंक यू माई लव!”
मैं लेखक की इस कृति के लिए उन्हें साधुवाद देती हूं ,उन की लेखनी को प्रणाम करती हूं। यह अद्भुत पुस्तक पाठकों के लिए ध्यान, रति, प्रेम, साधना व विपश्यना के नए सोपान गढ़ती है। इस कारण सभी को इसे पढ़ना चाहिए।
समीक्ष्य पुस्तक :
विपश्यना में प्रेम
लेखक : दयानंद पांडेय
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
4695 , 21 – ए , दरियागंज , नई दिल्ली – 110002
आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र
हार्ड बाऊंड : 499 रुपए
पेपरबैक : 299 रुपए
पृष्ठ : 106