डॉ. भूपेंद्र सिंह : चंद्रशेखर आजाद के चित्रों से जनेऊ क्यों गायब है..!!

अमर बलिदानी चंद्रशेखर आज़ाद जी के जयंती पर उनके चरणों में कोटिशः नमन।
मुझे आज़ उनसे जुड़ी दो घटनाएँ याद आ गईं जो यह बताती हैं कि किस किस प्रकार अतिवाद इस देश में व्याप्त है जो इन महान क्रान्तिकारियों को भी पूर्णता से स्वीकारने में लोगों को असमर्थ बना देता है।

मैं जब स्नातक की पढ़ाई कर रहा था तब तमाम विश्वविद्यालयों में वामपंथ की आँधी आई हुई थी, तब केंद्र सरकार के ऊपर भी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद सोनिया गांधी के अध्यक्षता में बैठती थी जिसने देश के एक से एक छटे नक्सली और अर्बन नक्सल भारत सरकार को गाइड करते थे। इनके चेलों के चेले विश्वविद्यालयों में सक्रिय हुए और लोगों को प्रभावित करने के लिए बलिदानी भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद जैसे लोगों का नाम आगे रखते और उनके पोस्टर हॉस्टल में लगाये जाते। मैं तो पहले से ही संघ से जुड़ा था लेकिन सीखने की दृष्टि से इन संगठनों से जुड़ गया।

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नाटकों में मैं बचपन से प्रतिभाग करता रहा और उनमें मुख्य भूमिका भी निभाता था लेकिन कक्षा 08 आते आते नाटकों में संवाद याद करने की जरूरत नहीं पड़ी। अध्यापक कहानी ठीक से समझा देते थे और हम लोग उसके आधार पर अपना डायलॉग ख़ुद ही बोल लेते थे और कभी भी लिखित स्क्रिप्ट नहीं दिया गया। स्क्रिप्ट वैसे भी याद करना कठिन होता था जबकि कहानी याद करके उसके भावों को स्वयं में उतारकर अपने से संवाद बोलना आसान। लेकिन बाद में जब कालेज आया तो फर्स्ट ईयर में ही पता चल गया कि नाटक वास्तव में स्क्रिप्ट याद करके ही किया जा सकता है। मैंने एक दो हल्के फुलके नाटकों में निर्देशन किया लेकिन नुक्कड़ नाटक फिर पहुँच से दूर रहा। इन वामपंथियों के अंदर नुक्कड़ नाटक का कीड़ा बहुत तगड़ा होता है। मैंने इन्हें जॉइन कर लिया, इस जॉइनिंग के दौरान तमाम आंदोलनों में भाग लिया, फ्रंट पर खड़ा भी हुआ, पुलिस ने कई बार कायदे से कूटा भी और एक बार तो दो पसली की हड्डी में हेयरलाइन फ्रैक्चर भी हो गया जो आज भी जाड़े में भयानक दर्द देता है। खैर उनके साथ नुक्कड़ नाटकों का दौर चला और मुझे ही दो प्रमुख नुक्कड़ नाटक में निर्देशन का जिम्मा मिला। इसी दौरान एक चार पन्ने का अखबार उन लोगों में चलाने का प्रयास किया तो मुझे उसके शुरुआती अंक में संपादन का भी मौक़ा मिला। इस दौरान क्रांतिकारियों के विचार विश्वविद्यालय में जगह जगह चिपकाए जा रहे थे और कुछ मैग्सेसे अवार्डी दलाल भी यहाँ आकर अपने मूर्खता को महत्वपूर्णता में बदलते रहते। एक दिन मैंने हॉस्टल के नोटिस किया कि चंद्रशेखर आज़ाद जी के शरीर पर सामान्य रूप से दिखने वाला जनेऊ चित्र से ग़ायब है। मैंने इस पर पहले तो अपने साथ वालों से चर्चा किया कि भला कोई अपने मन से आज़ाद जी के चित्र में हेरफेर कैसे कर सकता है? आज़ जनेऊ ग़ायब किया कल मूछ ग़ायब कर दो, इसके पीछे क्या सेंस है? बात ऊपर के लोगों तक गई तो उन्होंने स्पष्ट कहा कि जनेऊ को एडिट करके हटा दिया गया है क्यूंकि यह ब्राह्मण सत्तात्मक समाज को दर्शाता है। हम जनेऊ को स्वीकार नहीं करेंगे। खैर मेरा उस गैंग से विरोध बढ़ता रहा और तब तक श्री रामजन्मभूमि पर हाईकोर्ट का फैसला आ गया और मैने मिठाई बटवा दी, जिसके बाद उन्होंने मुझे अपना खुला दुश्मन मान लिया और बदले में हम लोगों ने मेडिकल विश्वविद्यालय के हॉस्टल्स में संघ की गुरु दक्षिणा शुरू करा दी।
दूसरी घटना अभी कुछ साल पहले की है। अचानक एक दिन एक गीतकार जिनका नाम पहले मनोज शुक्ला था और बाद में वह मनोज मुंतशिर हुए, ने कविता पाठ किया “जियो तिवारी, जनेऊधारी”। मैंने इसका विरोध किया कि इस तरह से चंद्रशेखर आज़ाद जी को अपनी तरफ़ से केवल “तिवारी” कहना अनुचित है क्यूँकि उन्होंने अपने से अपना नाम चंद्रशेखर तिवारी से चंद्रशेखर आज़ाद रखा था। कम से कम उनके अपने फ़ैसले का तो हमें सम्मान करना चाहिए। तब मुझे तमाम लोगों ने ब्राह्मणविरोधी कराए दिया और जमकर कोसा। इन लोगों को यह बात समझ नहीं आ रही थी कि चंद्रशेखर आज़ाद के ऊपर उनके द्वारा हटाए गए “तिवारी” लेबल को फिर से जबरदस्ती चिपकाने से उनकी स्वीकार्यता जो आज़ पूरे देश में है, वह घटने छोड़कर कभी बढ़ेगी नहीं। खैर बाद में मनोज मुंतशिर, फिर से मनोज मुंतशिर शुक्ल हो गए और एक समय हर मंच पर छाये रहने वाले अचानक से बिल्कुल ग़ायब से हो गए। उसके बाद उनके एक के बाद एक ऐसे बयान आते गए जो प्रशंसक उनके लिए मुझे गाली दे रहे थे, वह उन्हीं को गाली देते मिल जाते हैं।

मैं वास्तव में एकदम मध्यमार्गी व्यक्ति हूँ। मैं किसी अति पर जाता नहीं, और इसलिए कोई जाता दिखा तो मुझे तुरंत समझ में आता है। इसीलिए एजेंडेबाज लोगों से सावधान रहता हूँ क्यूँकि कोई भी ठीक दिमाग़ का व्यक्ति अति पर सहज रूप से नहीं रह सकता, और यदि वह अचानक से कुछ एक साल में हृदय परिवर्तित करके अति की तरफ़ गया है तो वह कुल मिलाकर एजेंडा चला रहा है। एजेंडेबाज़ लोगों से सावधान रहना चाहिए।

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