सर्वेश तिवारी श्रीमुख : हमारी संवेदना का धंधा करने वाले फिल्मकार..

यदि गाँव-देहात के आम जनमानस की बात करें तो सनातन देवियों में माता सीता सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। उसका विशेष कारण यह है कि समाज ने अपने लिए जो ‘श्रेष्ठ बेटी’ और ‘श्रेष्ठ बहु’ होने का मानक तय किया है, माता सीता को उन दोनों पर पूर्णता प्राप्त है।

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सोच कर देखिये, उनसे अधिक मर्यादित पुत्री की कल्पना कर सकते हैं आप? क्या उनसे अधिक समर्पित बहु की कल्पना कर सकते हैं आप? नहीं! अपने परिवार की प्रतिष्ठा के लिए जीवन भर संघर्षों से जूझती रहीं माता सीता कहीं भी स्थापित मूल्यों के विरुद्ध नहीं जातीं। जीवन में मिलने वाले हर सुख दुख को सहज भाव से स्वीकार कर लेती हैं और सदैव मर्यादा की डोर से बंधी रहती हैं। तभी वे आज भी मिथिला के लिए ‘आंख की पुतरी’ बेटी हैं। ऐसे चरित्रों को समाज सचमुच अपनी आंखों में रखता है।

अपने परिवार के प्रति सदैव समर्पित रहने वाले प्रभु श्रीराम यदि सर्वश्रेष्ठ पुत्र हैं, तो उनके हर दुख में आधा बांट लेने वाली माता सर्वश्रेष्ठ बहु। मर्यादापुरुषोत्तम का विशेषण भले प्रभु श्रीराम के नाम के साथ जुड़ा है, पर उसे निभाया राम-सिया ने संग संग ही है।

राम और सिया को सबसे अधिक सम्मान उनके मर्यादित आचरण के कारण ही प्राप्त हुआ है। तभी हर पिता सीता जैसी बेटी, या हर परिवार सीता जैसी बहु मांगता है। लोक के लिए सिया माता तो हैं ही…

पुरुष हो या स्त्री, अपने परिवार और समाज की भलाई के लिए स्वयं दुःख को अपना लेने वाले व्यक्तियों को ही आदर्श मानता और प्रतिष्ठा देता है।

भारत के लिए रामलीला या रामकथा कोई नाटक नहीं है, बल्कि एक आराधना है। यह देश रामायण शुरू होने के पहले टीवी को प्रणाम करने वालों का देश है। दो चार प्रतिशत रील बनाने वाले मुजराकर्मी कूल डुडों को छोड़ दें तो अब भी यह देश वैसा ही है। लोग राम का रोल करने वाले अभिनेता में भगवान राम को ही देखते हैं और मिलने पर श्रद्धा से पैर छू लेते हैं। माता सीता का अभिनय करने वाली अभिनेत्री में हम ‘माता सीता’ ही देखते है।

तो क्या यह देश किसी ऐसी अभिनेत्री को माता सीता के रूप में स्वीकार करेगा जो नङ्ग धड़ंग अश्लील फिल्में करती रही हो और आगे भी करती ही रहने वाली हो?

साढ़े छह सौ करोड़ रुपये बजट है। यदि पाँच दस करोड़ भी खर्च किये जाते तो निष्ठावान कलाकार मिल सकते थे। पर फिल्मकार को बड़ी स्टारकास्ट चाहिये थी क्योंकि पैसे बनाने थे।

यह तर्क आ सकता है कि आज के समय में इतनी मर्यादा न ढूंढिये, अब समय बदल गया है, वगैरह वगैरह… तो भाई! मर्यादा पुरुषोत्तम की कथा से जुड़े लोगों में भी मर्यादा न ढूंढे तो कहाँ ढूंढे? और यदि आप मर्यादा की समझ ही नहीं रखते तो मर्यादा पुरुषोत्तम पर फ़िल्म क्यों बना रहे हैं ? फिर तो स्पष्ट है कि आप धंधा कर रहे हैं और लोक की संवेदना को भुनाने में लगे हैं।

तो हमारी संवेदना का धंधा करने वाले फिल्मकार! सनातन को जीवित रहने के लिए ऐसी फिल्मों की आवश्यकता पड़ने लगे, इतने भी बुरे दिन नहीं आये। आपने बख्श ही दिया होता तो बेहतर होता…

सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।

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