डॉ. चंद्रप्रकाश सिंह : बुद्धि उस रथ की सारथी है…

उपनिषद के अत्यंत प्रेरक मंत्रों में एक मंत्र रथ-रथी रूपक के रूप में कठोपनिषद में प्राप्त होता है, जो साधना मार्ग का अत्यंत सुंदर चित्रण करता है।

आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च।।
इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयां स्तेषु गोचरान्।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः।।
कठोपनिषद्-1.3.3-4

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आत्मा को रथी समझो और शरीर को रथ यानी रथरूपी शरीर में आत्मारूपी रथी विराजमान है। बुद्धि उस रथ की सारथी है और मन उसके लगाम यानी बुद्धिरूपी सारथी मनरूपी लगाम से रथ को हांकता है।

इन्द्रियाँ (ऑंख, कान, नाक, जिह्वा, त्वक् आदि) उस रथ के घोड़े हैं और इन इन्द्रियों के विषय (रूप, रस, गंध, शब्द, स्पर्श आदि) उसके मार्ग हैं।

शरीर, इन्द्रिय और मन से युक्त आत्मा को भोक्ता कहते हैं।

वैसे तो अपने शुद्ध सच्चिदानन्द स्वरूप में आत्मा न कर्ता है न भोक्ता है, किन्तु शरीर, इन्द्रिय और मन की उपाधि धारण कर वह भोक्ता और कर्ता बन जाती है।

शरीर,इन्द्रिय और मन को क्रमशः रथ,घोड़े और लगाम के रूप में वर्णित किया गया है, लेकिन यदि बुद्धिरूपी सारथी द्वारा मनरूपी लगाम से घोड़ों को नियंत्रित न किया जाए और मन को ढीला छोड़ दिया जाए तो घोड़े अपने-अपने विषयों की ओर अनियंत्रित दौड़ते रहेंगे और रथी कभी भी अपने गंतव्य तक नहीं पहुंच सकेगा, इसलिए बुद्धिरूपी सारथी द्वारा मनरूपी लगाम को कसकर इन्द्रियरूपी घोड़ों को नियंत्रित किया जाता है।

जब मन में राग, द्वेष, स्वार्थ, लोभ, मोह, काम, क्रोध और अहंकार का वास होता है तब मन द्वारा बुद्धि को नकारा जाने लगता है और उसकी आज्ञाओं का उल्लंघन कर तरह-तरह के तर्क गढ़े जाते है। यहाँ तक कि ऐसे मूढ़मति द्वारा अपने मनमाने कृत्यों को ढकने के लिए तर्कों द्वारा बुद्धि और शास्त्र को ही दोषी ठहराया जाने लगता है और मन द्वारा इन्द्रियों के भोग समर्पण को ही अपनी श्रद्धा घोषित कर अंततः लौकिक भोगों में प्रवृत्त कुमार्गगामी अधःपतन को प्राप्त करता है।
साभार – डाॅ. चन्द्र प्रकाश सिंह

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