योगी अनुराग : बुद्ध और महावीर
समय का दिक्-सूचक हर रोज़ अपनी उत्तर दिशा को बदल लेता है। आज उत्तर दिशा में “बुद्ध-पूर्णिमा” ध्रुव-तारे सी दीप रही है, समय का प्रतीत्यसमुत्पाद सरीखा बारह तीलियों का चक्र “बुद्ध” के जन्मदिवस की ओर इंगित कर रहा है।
बहरहाल, ये कहना ज्यादा सटीक होगा कि “बुद्ध-पूर्णिमा” कपिलवस्तु के राजपुत्र “सिद्धार्थ” का जन्मदिवस है। आश्चर्यपूर्ण, किंतु एक सत्य ये भी है कि उस राजपुत्र ने इसी पूर्णिमा को “बुद्धत्त्व” की प्राप्ति की थी।
सो, ये कहने में कोई आपत्ति नहीं कि ये “बुद्ध” का भी जन्मोत्सव है। और साथ ही, एक तथ्य यह भी है कि इसी पूर्णिमा का दिन “बुद्ध” के महापरिनिर्वाण भी अपने साथ लेकर आया था।
कुलमिला कर लब्बोलुआब ये है कि वैशाख पूर्णिमा के अवसर पर, जब चन्द्रमा विशाखा नक्षत्र में होता है, तो ये दिन जन्म-बोध-निर्वाण के ऐसे संजोगों में लिपट कर आता है, जो अन्य किसी दिन को सहज प्राप्त नहीं!
##
यों तो “बुद्ध” के ज़िक्र पर, एक विशेष मधुर हँसी का स्मरण हो आता है। एक पङ्क्ति भी है न :
“हँसे जो बुद्ध की मूरत / तो तेरी याद आती है!”
किन्तु अगले ही पल “वर्धमान” की सुधि आने लगती है। जैनधर्म के तीर्थंकर, जिन, महावीर और यदा कदा वर्धमान भी!
“वर्धमान” का चरित्र चित्रण, “बुद्ध” के चरित्र के साथ सम्बन्ध के इतने अधिक और इतने विशिष्ट अंश प्रस्तुत करता है कि मानव चेतना विवश होकर अपनी सहज प्रेरणा से इस परिणाम पर पहुँचती है :
“एक ही व्यक्ति, इन दोनों चरित्रों का नायक है!”
“बुद्ध” और “महावीर” – भारतीय अवैदिक परंपरा के दो विपरीत ध्रुव हैं, लेकिन उनकी धुरी एक ही है! और इनकी धुरी की थाह पाने का पहला प्रयास, संभवतया, उन्नीसवीं सदी में “ऑगस्ते बार्थ” ने किया था।
यहां ध्यातव्य हो “ऑगस्ते बार्थ” का ये प्रयास दोनों धर्मों के आप्त-नायकों की तुलना का पहला प्रयास था। जबकि दोनों धर्मों की मीमांसा-पूर्ण तुलना का कार्य ग्यारहवीं सदी में ही आरंभ हो चुका था। वैसी तुलनाओं के प्रणेता जैनाचार्य “हेमेंद्र” थे।
बहरहाल, बहरकैफ़।
सन् अठारह सौ उनासी में, जब अंग्रेज भारतीय प्राच्य साहित्य का विनाश कर रहे थे। उन्हीं दिनों फ़्रांस का एक प्राच्यविद् अपनी पुस्तक “द रिलीजन्स ऑफ इंडिया“ के साथ प्रकट हो गया।
वो था, ऑगस्ते बार्थ!
यों तो बार्थ ने बड़ी स्पष्टता के साथ भारत के लगभग सभी धर्मों का वर्णन किया है। किंतु इस पुस्तक के पृष्ठ एक सौ अड़तालीस से लेकर एक सौ पचास तक, बार्थ ने जैन और बौद्ध धर्म की तुलना की है।
यूं भी कहना उचित होगा कि “वर्धमान” और “बुद्ध” की तुलना की है!
##
जन्मदिवस “बुद्ध” का हो या “वर्धमान” का, एक दूजे के उल्लेख के बिना, जन्मदिवस पर ये बौद्धिक आयोजन पूर्ण न होगा!
दोनों समकालीन थे। “बुद्ध” का निर्वाण ईसा के पांच सौ तियालीस वर्ष पूर्व हुआ और “वर्धमान” का पांच सौ छब्बीस वर्ष पूर्व!
दोनों का कालखंड एक ही था, किन्तु फिर भी, एक दूसरे पर मौन साधे रहे। “वर्धमान” तो कभी बौद्धधर्म पर कुछ बोले ही नहीं। या कि “वर्धमान” कभी बौद्धों पर बोले भी हों, तो इसका उल्लेख नहीं मिला।
— इस अनुल्लेख का कारण जैनों के “पंचशील” में से एक “अपरिग्रह” का सिद्धांत था। संग्रह न करने का ये सिद्धांत वैसी कठोरता लिए था कि पांचवीं सदी तक जैनों ने अपने धर्मग्रंथों तक का भी संग्रह नहीं किया!
बहरहाल, “बुद्ध” ने अवश्य जैनियों का ज़िक्र अपने उपदेशों में किया है।
“दीघनिकाय” नामक ग्रन्थ के के अध्याय “ब्रह्मजालसुत्त” में “बुद्ध” ने “वर्धमान” पर संवाद तो किया है, किन्तु उन्हें उनके प्रचलित नाम से नहीं पुकारा। बल्कि केवल “निग्गंठ नातपुत्त” कहकर अभिहित कर दिया!
“निग्गंठ” पालि भाषा का एक शब्द है, जिसका अर्थ है : “किसी भी बंधन से रहित”।
##
भला ऐसे सामन चरित्र के दो नायक, एक ही युग में प्रकट कर, कभी एक दूजे से मिले नहीं होंगे? कौन जाने?
कहते हैं, एक बार ऐसा अवसर आया भी था कि वे एक दूजे से मिल सकते थे। हुआ यों था कि “बुद्ध” और “वर्धमान” एक ही सराय में ठहरे थे, किन्तु फिर भी नहीं मिले!
क्या ये सिद्ध नहीं करता कि “बुद्ध” और “वर्धमान” एक देह के दो अवयव थे, एक ही प्राणशक्ति के दो छोर! एक ही आकांक्षा के दो मनोरथ! वे भला कैसे मिल सकते थे?
कितनी समानता है दोनों में! यहाँ तक कि दोनों के शिष्यों और संबंधियों के नामों की सामूहिक शब्दावली भी समान है।
दोनों के अनुयायियों के मानना है कि उन्हें मौर्यवंशीय राजाओं का आश्रय प्राप्त था। ज़ाहिर है, बिहार प्रान्त का एक जनपद, जो एक के लिए पवित्रभूमि है, प्रायः दूसरे के लिए भी पवित्र स्थान है।
दोनों के तीर्थ एकदूजे से जुड़े हुए हैं। बिहार, गुजरात, राजस्थान में आबू पर्वत, एवं अन्य स्थानों में भी सर्वत्र साथ-साथ मिले हैं!
“बुद्ध” और “महावीर” की व्यक्तिगत बात करें, तो भी दोनों एक नायक के दो चरित्र प्रतीत होते हैं!
दोनों अनीश्वरवादी, किन्तु दोनों तपी-संयमी। दोनों पूर्वी भारत के राजपुत्र। जिनकी आरंभिक शिक्षाओं में ही वेदों का समावेश होता है। किन्तु दोनों वेद-विरुद्ध। दोनों ही, संस्कृत के ज्ञाता होकर भी संस्कृत के स्थान पर लोकभाषा में उपदेश देते थे।
भला इतनी समानता? कमसकम मनुष्यों में तो ये संभव नहीं। चूँकि तमाम सृष्टि का सृजन करने वाले “प्रजापति ब्रह्मा” का ये गुण भी है और अवगुण भी, कि वो हर सृजन अद्वितीय करते हैं।
किन्तु, “बुद्ध” और “महावीर” के प्रसंग में ब्रह्मा का ये गुणावगुण ध्वस्त होता हुआ दिख रहा है।
इति नमस्कारान्ते।
-चित्र साभार इंटरनेट से।