देवांशु झा : स्त्रियां केवल मूर्तियां मात्र नहीं, भारतीय समाज का प्रतिबिंब

वह स्त्री है..!

बैठाया तो इसलिए गया था उसे
कि अपनी अग्निप्रतिरोधी चादर के चलते
वह बच जाएगी
और प्रह्लाद जल जाएगा
लेकिन जब तपिश बढ़ी
तो उसने अपनी चादर प्रिय प्रह्लाद को ओढ़ा दी
और स्वयं जल मरी
स्त्री थी न!

वह स्त्री है,कुछ भी कर सकती है।

यह एक कविता है-अगर इसे हम कविता कह सकें! हिन्दी के एक वरिष्ठ, चर्चित वामपंथी कवि ने इसे लिखा है। यह ऐतिहासिक रूप से झूठ तो है ही। काव्यात्मक संवेदना इसकी इकहरी, भोथरी है।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि..वह स्त्री थी न/ वह स्त्री है, कुछ भी कर सकती है-इस नारे की आड़ में संपूर्ण हिन्दू जातीय इतिहास को मलिन करने का कुत्सित प्रयास है। यह सर्वविदित है कि वामपंथियों और कथित प्रगतिशीलों के लिए हिन्दुओं के पर्व त्योहार, उनकी अन्तर्कथाएं, उनके पात्र और संदेश हमेशा से प्रश्नों के घेरे में रहे। यह उनका प्रिय, लगभग पुश्तैनी धंधा सा रहा। भारतीय स्त्रियों की दशा पर उन्होंने बड़ी टीका टिप्पणियां कीं। उनकी पारम्परिकता को रूढ़िवादिता से जोड़ा। उनके साज शृंगार और उपवास आदि को पतनोन्मुख बताया।और ज्यों ही उन्होंने कुछ सफलता पाई, उसे पश्चिम की मुक्ति का परिणाम घोषित कर यह चलताऊ पंक्ति जोड़ दी–वह स्त्री है, वह कुछ भी कर सकती है!


वह स्त्री है, कुछ भी‌ कर सकती है की पूरी अर्थवत्ता, उसका पूरा प्रयोजन नियोजन इस बात में निहित है कि वह भारतीय स्त्री है, जिसे कुछ करने ही नहीं दिया जा रहा था। वह भारतीय स्त्री है जिसके हिस्से में अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी ही आया।‌ वह स्त्री घूंघट ओढ़े गोबर पाथती रही। जीवन भर सबकी सेवा कर मर खप गई। अब देखो, जब से अंग्रेजी माडर्निज्म आया है, स्त्रियां आकाश छू रही हैं। और सतयुग में भी जब स्त्रियां जलकर भस्म हुईं तो उन्होंने इसी अंग्रेजी माडर्निज्म को जीवन में उतार लिया था। क्योंकि वह स्त्री थी, कुछ भी कर सकती थी। आप ने अवश्य ही ध्यान दिया होगा कि जिस पश्चिमी समाज में आज से एक दो शती पहले तक भी स्त्रियां महादैन्य अवस्था में रहने को शापित थीं और जिस महान सभ्यता में आज तक उन्हें काला परदा बनाकर बच्चे जनने का कारखाना माना जाता है, उन पर कविवर कुछ कह नहीं पाते। वह स्त्री है, वह कुछ भी कर सकती है! इस पंक्ति का प्रवेश वहां वर्जित है।


जिन्होंने भी भारतीय इतिहास का ठीक से अध्ययन किया है, वे भलीभांति जानते हैं कि भारतीय समाज में स्त्रियों को घर तक सीमित कर देने अथवा पर्दा घूंघट से बांधने का चलन कैसे शुरू हुआ। अगर सदा से ही भारतीय जीवनधारा में स्त्रियां इस तरह से बंद रही होतीं तो हजार वर्ष पहले बनाए गए मंदिरों में उनकी उतनी मुखर प्रतिमाएं न रहीं होतीं। वे नृत्य करती हुईं, बच्चों को पढ़ाती हुईं, श्रृंगार करती हुईं, परिचर्चा में भाग लेती हुईं और अनेकानेक गतिविधियों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हुई मिलती हैं। कहना आवश्यक नहीं कि वे स्त्रियां केवल मूर्तियां मात्र नहीं, भारतीय समाज का प्रतिबिंब हुआ करती थीं। ध्यातव्य है कि विदेशी आक्रांताओं के आक्रमण के सैकड़ों वर्षों में स्त्रियां गृहकैद तो हो गईं किन्तु उस कालखंड में भी हिन्दू पारिवारिक व्यवस्था का आधार स्त्रियां ही रहीं। वहां उनके अधिकार विशिष्ट रहे। इस सत्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि काल के साथ स्त्रियों की रक्षा के खोजे उपाय या उन्हें घर में बंद कर रखने की बाध्यता धीरे धीरे शोषण में परिवर्तित होती गई। स्त्रियों के अधिकार सीमित करने के भयावह दुष्परिणाम हुए।‌ उनकी निजता का हनन एक सामान्य बात हो गई।


प्राचीन भारत के कुछ छोटे उदाहरणों से भारतीय समाज में स्त्रियों की सशक्त और गरिमामय उपस्थिति का अनुभव किया जा सकता है। रामायण में श्रीराम जब वन जाने को तैयार होते हैं और सीता भी उनके साथ जाने के लिए वल्कल धारण कर लेती हैं तब कुलगुरु वसिष्ठ आंसुओं में डूब कर कहते हैं:

न गन्तव्यं वनं देव्या सीतया शीलवर्जिते
अनुष्ठास्यति रामस्य सीता प्रकृतमासनम्

सीता वन नहीं जाएंगीं। राम के स्थान पर मैं उनका राज्याभिषेक करूंगा। वह उनकी अर्द्धांगिनी हैं। उन्हें सिंहासन पर बैठने का अधिकार है।

यह एक छोटा सा उदाहरण है कि भारतीय जीवनचर्या में स्त्रियां पुरुषों की अनुगामिनी मात्र नहीं अपितु सहचरी समानाधिकारिणी, स्वामिनी और देवी भी होती थीं।‌विदुषियों ने ऋचाएं लिखीं। काव्य रचे। शास्त्रार्थ किया। यहां तक कि युद्ध लड़कर विजयी हुईं। और जब उन्हें पराजय का भान हुआ, उन्होंने अपने मान के लिए खुद को अग्नि में झोंक दिया। यद्यपि जौहर कर अपने लिए कठिनतम मृत्यु का चुनाव करने वाली मानिनियों के लिए माडर्निस्ट लिबरल गैंग के मन में कोई श्रद्धा नहीं है। वे उस पीड़ादायी अग्नि स्नान और मानव सभ्यता की अतिविरल घटना पर हंसते हैं और कहते हैं कि भला खुद को जलाने की क्या आवश्यकता थी? तब वह नहीं लिखते–वह स्त्री थी, कुछ भी कर सकती थी! लेकिन वह कहती/कहतीं हैं–खिलजी के आगे समर्पण कर देतीं! खुद को भस्म करने की क्या जरूरत थी! यह सोच उनकी बुद्धि का खोल उतार कर रख देती है।


वह स्त्री है, वह कुछ भी कर सकती है! यह एक नकारात्मक ऊर्जा है। क्योंकि इस पंक्ति को उनकी सफलताओं के उत्सव रूप में नहीं बल्कि भौडी प्रतियोगिता या बराबरी की होड़ में कुछ ऊटपटांग करने पर पीठ ठोकने के लिए प्रयोग में लाया जाता है। उसमें न केवल भारतीय इतिहास को हेय दृष्टि से देखने की कुचेष्टा है बल्कि वर्तमान में सभी आदर्शवादी पारिवारिक व्यवस्था के ध्वंस का क्रूर आवाहन भी है।हिन्दी के कविराज की उक्त रद्दी कविता इसी अर्थ में लिखी गई है। अपनी संस्कृति की आलोचना होनी चाहिए। अगर आलोचना स्वस्थ हो। पूरी संस्कृति या सभ्यता का ही उपहास करने वाले लोग वैसा नहीं कर सकते। उनकी बीमार बुद्धि केवल हास्यास्पद आत्मध्वंस करती है। उसमें सत्यनिष्ठ समालोचन नहीं होता।

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