प्रह्लाद सबनानी : मुद्रा स्फीति पर अंकुश लगाने की दृष्टि से रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज दरों में वृद्धि..

भारत के बहुत पुराने समय के इतिहास में महंगाई नामक शब्द का वर्णन ही नहीं मिलता है। क्योंकि ग्रामीण इलाकों में कुटीर उद्योगों के माध्यम से वस्तुओं का उत्पादन प्रचुर मात्रा में किया जाता था एवं वस्तुओं की आपूर्ति सदैव ही सुनिश्चित रखी जाती थी अतः मांग एवं आपूर्ति में असंतुलन पैदा ही नहीं होने दिया जाता था।
कोरोना महामारी के बाद से पूरे विश्व में मुद्रा स्फीति बहुत तेजी से बढ़ी है। भारत में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रा स्फीति 7 प्रतिशत के ऊपर एवं थोक मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रा स्फीति 13 प्रतिशत के ऊपर निकल गई थी। कई विकसित देशों में तो उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रा स्फीति 10 प्रतिशत से भी ऊपर पहुंची थी जो कि पिछले 50 वर्षों की अवधि में सबसे अधिक महंगाई की दर है। मुद्रा स्फीति से आश्य वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि एवं मुद्रा की क्रय शक्ति में कमी होने से है।

मुद्रा स्फीति विशेष रूप से समाज के गरीब एवं निचले तबके तथा मध्यम वर्ग के लोगों को बहुत अधिक प्रभावित करती है। क्योंकि, इस वर्ग की आय एक निश्चित सीमा में रहती है एवं इसका बहुत बड़ा भाग उनके खान-पान पर ही खर्च हो जाता है। यदि मुद्रा स्फीति तेज बनी रहे तो इस वर्ग के खान-पान पर भी विपरीत प्रभाव पड़ने लगता है। अतः, मुद्रा स्फीति को काबू में रखना देश की सरकार का प्रमुख कर्तव्य है। मुद्रा स्फीति, दीर्घकाल में देश के आर्थिक विकास को भी धीमा कर देती है। इसी कारण से कई देशों में मौद्रिक नीति का मुख्य ध्येय ही मुद्रा स्फीति लक्ष्य पर आधारित कर दिया गया है।

मुद्रा स्फीति को नियंत्रित करने के उद्देश्य से केंद्रीय बैंक ब्याज दरों में लगातार वृद्धि की घोषणा कर रहे हैं। ब्याज दरों में वृद्धि इस उद्देश्य से की जा रही है ताकि नागरिक बैकों से ऋण लेने के लिए निरुत्साहित हो तथा वे अपनी बचतों को बैकों में जमा करने को प्रोत्साहित हों। इससे नागरिकों की खर्च करने की क्षमता कम होकर बाजार में उत्पादों की मांग कम हो और इन उत्पादों की उपलब्धता, मांग की तुलना में, बाजार में बढ़ जाए जिससे इन उत्पादों की कीमतों में कमी होकर अंततः मुद्रा स्फीति पर अंकुश लग जाए।

ब्याज दर के लगातार बढ़ाते जाने से कई अर्थव्यवस्थाओं में मुद्रा स्फीति तो नियंत्रण में नहीं आ पा रही है परंतु अन्य कई प्रकार की अन्य आर्थिक समस्याएं जरूर उभर रही हैं। जैसे, कम्पनियों के व्यवसाय में कमी होना, लाभप्रदता में कमी होना, कर्मचारियों की छंटनी होना, करों के संग्रहण में कमी होना एवं बेरोजगारी का बढ़ना, देश की विकास दर में कमी आना, आदि। इस कारण से अब यह सोचा जाना चाहिए कि इन परिस्थितियों में मुद्रा स्फीति को नियंत्रित करने के लिए ब्याज दरों का बढ़ाते जाना क्या सही उपाय है। इस तरह के उपाय पूर्व में विकसित अर्थव्यवस्थाओं, जिन्होंने पूंजीवादी मॉडल के अनुसार अपने आर्थिक विकास को आगे बढ़ाने का निर्णय लिया है, द्वारा किए जाते रहे हैं। जबकि, अब यह उपाय बोथरे साबित हो रहे हैं। इन परिस्थितियों के बीच, उत्पादों की मांग कम करने के उपाय के स्थान पर उत्पादों की आपूर्ति बढ़ाकर क्या इन समस्याओं का हल नहीं निकाला जाना चाहिए। विशेष रूप से मुद्रा स्फीति की समस्या उत्पन्न  ही इसलिए होती है कि सिस्टम में उत्पादों की मांग की तुलना में आपूर्ति कम होने लगती है। कोरोना महामारी के दौरान एवं उसके बाद रूस एवं यूक्रेन युद्ध के कारण कई देशों में कई उत्पादों की आपूर्ति बाधित हुई है। जिसके कारण मुद्रा स्फीति इन देशों में फैली है।

भारत के बहुत पुराने समय के इतिहास में महंगाई नामक शब्द का वर्णन ही नहीं मिलता है। क्योंकि ग्रामीण इलाकों में कुटीर उद्योगों के माध्यम से वस्तुओं का उत्पादन प्रचुर मात्रा में किया जाता था एवं वस्तुओं की आपूर्ति सदैव ही सुनिश्चित रखी जाती थी अतः मांग एवं आपूर्ति में असंतुलन पैदा ही नहीं होने दिया जाता था।

पूंजीवादी मॉडल के विपरीत भारतीय आर्थिक चिंतन में विपुलता की अर्थव्यवस्था के बारे में सोचा गया है, अर्थात अधिक से अधिक उत्पादन करो – “शतहस्त समाहर, सहस्त्रहस्त संकिर” (सौ हाथों से संग्रह करके हजार हाथों से बांट दो) – यह हमारे शास्त्रों में भी बताया गया है। विपुलता की अर्थव्यवस्था में अधिक से अधिक नागरिकों को उपभोग्य वस्तुएं आसानी से उचित मूल्य पर प्राप्त होती रहती हैं, इससे उत्पादों के बाजार भाव बढ़ने के स्थान पर घटते रहते हैं।  भारतीय आर्थिक चिंतन व्यक्तिगत लाभ केंद्रित अर्थव्यवस्था के स्थान पर मानवमात्र के लाभ को केंद्र में रखकर चलने वाली अर्थव्यवस्था को तरजीह देता है। आज यदि “सर्वे भवंतु सुखिनः” का लक्ष्य पूरा करना है तो भारतीय वेदों में बताई गई विपुलता की अर्थव्यवस्था अधिक ठीक है, न कि जानबूझकर अकाल का निर्माण करने वाली पूंजीवादी अर्थव्यवस्था।

हाल ही के समय में विशेष रूप से खाद्य पदार्थों की उपलब्धता के बढ़ने के कारण भारत में मुद्रा स्फीति पर अंकुश लगाने में सफलता मिली है और दिसम्बर 2022 माह में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रा स्फीति पिछले 12 माह के न्यूनतम स्तर 5.72 प्रतिशत पर आ गई है एवं खाद्य पदार्थों में महंगाई दर 4.19 प्रतिशत की रही है। दरअसल भारत का कृषक अब जागरूक हो गया है एवं पदार्थों की मांग के अनुसार नई तकनीकी का उपयोग करते हुए उत्पादन करने लगा है। आवश्यकता अनुसार पदार्थों का उत्पादन बढ़ाया जा रहा है, इससे उन पदार्थों की आपूर्ति बाजार में बढ़ रही है एवं इस प्रकार मुद्रा स्फीति पर अंकुश लग रहा है। हालांकि जनवरी 2023 में यह पुनः बढ़कर 6.52 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच गई है, परंतु थोक मूल्य सूचकांक आधारित महंगाई की दर 4.73 प्रतिशत के स्तर पर नीचे आ गई है। अन्य विकसित देश चूंकि ब्याज दरों में लगातार वृद्धि करते जा रहे हैं अतः इन देशों की मुद्रा मजबूत हो रही है एवं भारतीय रुपये का अमेरिकी डॉलर के मुकाबले अवमूल्यन हो रहा है। इससे आयात महंगे हो रहे हैं तथा भारत में आयातित महंगाई बढ़ रही है।

चूंकि आयातित महंगाई दर के अतिरिक्त, भारत में महंगाई की दर अब बहुत बड़ी हद्द तक नियंत्रण में आ चुकी है अतः भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा अब यह उम्मीद की जा रही है कि थोक मूल्य सूचकांक आधारित महंगाई की दर मई एवं जून 2023 माह में ऋणात्मक हो जाने की सम्भावना है वहीं खुदरा मूल्य सूचकांक आधारित महंगाई की दर अप्रेल 2023 में 4.5 प्रतिशत के नीचे आ जाने की सम्भावना है। भारत में महंगाई दर के नियंत्रण में बने रहने के चलते वित्तीय वर्ष 2023-24 के प्रथम तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद में 7.8 प्रतिशत की वृद्धि दर के रहने की सम्भावना व्यक्त की गई है। अर्थात, महंगाई दर पर नियंत्रण, देश की विकास दर को आगे बढ़ाने में भी सहायक सिद्ध हो रहा है।

परंतु, विश्व के अन्य देशों की तरह मुद्रा स्फीति पर अंकुश लगाने की दृष्टि से भारत में भी भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज दरों में लगातार वृद्धि की जा रही है। हालांकि खाद्य पदार्थों की कीमतों में हो रही वृद्धि के चलते यदि मुद्रा स्फीति में तेजी आ रही है तो इस ब्याज दरों को बढ़ाकर नियंत्रित नहीं किया जा सकता क्योंकि खाने पीने की वस्तुएं कितनी भी महंगी हो जाएं परंतु आवश्यक वस्तुओं का उपभोग तो किसी भी कीमत पर करना ही होता है। हां, चूंकि विश्व के अन्य देश ब्याज दरों में लगातार वृद्धि करते जा रहे हैं और इससे भारतीय रुपए पर अंतरराष्ट्रीय बाजार में दबाव आ रहा है जिससे भारत में आयात किए जाने पदार्थ महंगे हो रहे हैं अतः भारत में आयातित मुद्रा स्फीति बढ़ रही है। इसे नियंत्रित करने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक को बाध्य होकर रेपो दर में वृद्धि की घोषणा करनी पड़ रही है।

परंतु, भारत में ब्याज दरें अब इस स्तर पर आ गई हैं कि यदि इन्हें और अधिक बढ़ाया जाता है तो यह भारत के सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर को विपरीत रूप से प्रभावित करने लगेगी। कुछ हद्द तक इसका आभास वित्तीय वर्ष 2023 की तृतीय तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद में हुई वृद्धि दर से दृष्टिगोचर हो रहा है। वित्तीय वर्ष 2022-23 की तृतीय तिमाही, अक्टोबर-दिसम्बर 2022, में देश के सकल घरेलू उत्पाद में 4.4 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। जबकि वित्तीय वर्ष 2022-23 की प्रथम तिमाही, अप्रेल-जून 2022, में एवं द्वितीय तिमाही, जुलाई-सितम्बर 2022, में क्रमशः 13.2 प्रतिशत एवं 6.3 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई थी। ब्याज दरों में की जा रही वृद्धि का असर अमीर वर्ग एवं उच्च मध्यम वर्ग पर शायद नहीं पड़ रहा हो परंतु यह निम्न मध्यम वर्ग एवं गरीब वर्ग को बहुत अधिक प्रभावित कर रहा है क्योंकि इस वर्ग के नागरिकों द्वारा लिए गए ऋणों पर अदा की जाने वाली मासिक किश्त की राशि बहुत बढ़ जाती है जिससे इस वर्ग की वास्तविक आय बहुत कम हो रही है। अतः मुद्रा स्फीति को नियंत्रित करने के लिए ब्याज दरों में वृद्धि अब विभिन्न देशों की अर्थव्यवस्थाओं को विपरीत रूप से प्रभावित करने लगी है। इसे तो भारतीय आर्थिक चिंतन के आधार पर आपूर्ति पक्ष का प्रबंधन कर ही नियंत्रण में लाया जा सकता है।

प्रहलाद सबनानी

सेवा निवृत्त उप महाप्रबंधक,

भारतीय स्टेट बैंक

के-8, चेतकपुरी कालोनी,

झांसी रोड, लश्कर,

ग्वालियर – 474 009

मोबाइल क्रमांक – 9987949940

ई-मेल – psabnani@rediffmail.com

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