ये पढ़ लिया तो गीता-वेद को समझना सरल हो जाएगा..

तीसरा वरदान आत्मज्ञान, प्राण का रहस्य..

2 वरदानों तक लिंक को 3 बार पढ़कर मैंने इसमें सरल रूप में कॉपी करके कुछ अंश आपके समक्ष रखा है।

तीसरे वरदान में क्या अद्भुत ज्ञान मिला होगा,ये आप 2 वरदान पढ़ने से समझ सकते हैं।

कठोपनिषद का ये संवाद काफी हद तक गीता,वेदों की ओर आपको जुड़ने के लिए स्वतः प्रेरित करेगा। पढ़ने के बाद परम आदरणीय ravi jetly जी ने कहा था कि इसे पूरा पढ़ना भी तभी हो पाएगा जब ईश की इच्छा होगी अन्यथा like करके ही आगे बढ़ जाएंगे।

जिन्होंने इसे पढ़ा,उन्होंने जीवन गढ़ा..

ये पढ़ने के बाद वेदों-गीता को समझना बेहद सरल हो जाएगा


तीसरे वरदान में निहित आत्मज्ञान, प्राण तत्व को समझने के लिए link को पूरा पढ़ियेगा


जैसे किसी पुस्तक को पढ़ने में रूचि उसकी भूमिका, प्रस्तावना,संपादकी को समझने के बाद होती है, वैसे ही वेदों को समझने के लिए ब्राम्हणग्रंथो,उपनिषदों को पढ़ना जरूरी है। इसके बिना सीधे आप वेदों को पढ़ तो लेंगे लेकिन समझ नहीं पाएंगे।

कठोपनिषद का यम-नचिकेता संवाद वेदों की दिशा में पहला पग है…

तीसरे वरदान में नचिकेता ने आत्मतत्व का ज्ञान प्रदान करने की विनती की।तीसरा वरदान देने से पूर्व यम भी झिझक रहे थे। जबउन्होंने नचिकेता का दृढ़ निश्चय, आत्मज्ञान के प्रति ललक और विवेक का अनुमान लगाया तो उन्होंने उनकी तीनों इच्छाएं पूरी कर दीं।

जब नचिकेता को आत्मज्ञान प्राप्त हो गया तो वे पुनः घर लौट आए।नचिकेता और यम का ये संवाद शास्त्रों में प्रसिद्ध है।


प्राची काल में यज्ञ करना और दक्षिणा आदि में दान देना एक पुण्यकृत्य माना जाता था। विश्वजित एक महान यज्ञ था जिसमें सारा धन दान देकर रिक्त हो जाना गौरवमय माना जाता था। महर्षि उद्दालक ने विश्वजित यज्ञ किया और सर्वस्व दान करके रिक्त हो गये। उनका एक पुत्र नचिकेता सब कुछ देख रहा था। अधिकांश ऋषिगण गृहस्थ होते थे तथा वनों में रहते थे। प्राय: गौएं ही उनकी धन सम्पति होती थी। जिस समय दक्षिणा के लिए गौं को ले जाया जा रहा था, तब छोटा बालक होते हुए भी उस नचिकेता में श्रद्धाभाव (ज्ञान-चेतना, सात्त्विक-भाव) उत्पन्न हो गया तथा उसने चिन्तन-मनन प्रारंभ कर दिया।

नचिकेता में श्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त करने की पात्रता थी।

( प्रकृति ने मनुष्य को चिन्तन मनन की शक्ति दी है, पशु को नहीं। मनन करने से ही वह मनुष्य होता है, अन्यथा मानव की आकृति में वह पशु ही होता है। चिन्तन के द्वारा ही मनुष्य ने ज्ञान-विज्ञान में प्रगति की है तथा चिन्तन के द्वारा ही मनुष्य उचित-अनुचित धर्म-अधर्म,पुण्य-पाप आदि का निर्णय करता है। चिन्तन के द्वारा ही विवेक उत्पन्न होता है तथा वह स्मृति कल्पना आदि का सदुपयोग कर सकता है। चिन्तन को स्वस्थ दिशा देना श्रेष्ठ पुरुष का लक्षण होता है)

नचिकेता ने सोचा कि दान में दी जानेवाली अधिकाशं गौढं मरणासन्न हैं, वे पानी पीने में तथा घास खाने में भी असमर्थ हैं, और वे अब दूध देने अथवा कुछ लाभ देने में भी असमर्थ हैं ,उनका दूध दुहा जा चुका है और वे अब दूध देने के योग्य नहीं रहीं। जिन गौओं की इन्द्रियां शिथिल हो चुकी हैं, उनको दान में देनवाला मनुष्य पाप का भागी होता है तथा उन लोकों को प्राप्त होता है, जो सब प्रकार से सुखों से शून्य हैं। कुमार नचिकेता में उत्तम उत्कृष्ट और निकृष्ट तथा सत्य और असत्य का विवेक था, जो आध्यात्मिक साधना के लिए महत्तवपूर्ण होता है।

कुमार नचिकेता में एक उदात्त सात्त्वक का उदय हो गया था। उसने विचार किया कि उपयोगी वस्तु का दान न केवल निरर्थक है, बल्कि कष्टप्रद लोक को प्राप्त भी करा देता है। सर्वस्व दान के अन्तर्गत तो पुत्र का दान भी होना चाहिए। श्रद्धाभाव से प्रेरित होकर नचिकेता ने पिता से कहा -हे पिताजी, मैं भी तो आपका धन हूं। आप मुझे किसको देंगे? उसके दो तीन बार पिता से ऐसा कहने पर, आवेश में आकर पिता ने कहा-मैं तुझे मृत्यु को देता हूं।

{व्यक्तियों की तीन श्रेणियां होती हैं-उत्तम,मध्यम और अधम अथवा प्रथम,द्वितीय,और तृतीय) मैं बहुत

से (शिष्यों एवं पुत्रों में) प्रथम श्रेणी में आ रहा हूं , बहुत से मे द्वितीय श्रेणी में रहा हूँ। यम का कौन सा ऐसा कार्य है, जिसे पिताजी मेरे द्वारा (मुझे देकर)करेंगे?}

नचिकेता महर्षि उद्दालक का पुत्र एवं शिष्य था । उसने सोचा- मैं बहुत की अपेक्षा प्रथम श्रेणी में तथा बहुत की अपेक्षा द्वितीय श्रेणी मे रहा हूं तथा कभी तृतीय श्रेणी मे नहीं रहा। यदि मैं उत्तम और मध्यम कोटि में नहीं रहा तो अधम भी नहीं रहा। पिताजी मुझे यमराज को देकर कौन सा कार्य पूरा करेंगे, यमराज के कौनसे प्रयोजन को पूरा करेंगे?

नचिकेता ने यह भी सोचा-कदाचित् पिता ने क्रोधावेश में आकर मुझे यमराज को सौंपने की बात कह दी है और वे अब दुःखी होकर पश्चाताप कर रहे हैं अतएव मैं उन्हें नम्रतापूर्वक सान्त्वना दूंगा। यह विचार नचिकेता की श्रेष्ठता को प्रमाणित करता है तथा इंगित करता है कि नचिकेता ब्रह्मज्ञान को प्राप्त करने का उत्तम अधिकारी है,श्रद्धामय होने के कारण सत्पात्र है।

नचिकेता ने अपने पिता एवं गुरु उद्दालक को पूर्वजों से चली आती हुई श्रेष्ठ आचरण की परम्परा पर दृष्टिपात करने का निवेदन किया। श्रेष्ठ पुरुषों के आचरण में पहले भी सत्य का आग्रह था तथा वह अब भी ऐसा ही है। मनुष्य तो अनाज की भांति जन्म लेता है,जीर्ण-शीर्ण होकर मृत्यु को प्राप्त हो जाता है अनाज की भांति पुन: जन्म ले लेता है। जीवन अनित्य् होता है, मनुष्य के सुख भी अनित्य होते हैं, अत: क्षणभंगुर सुखों के लिए सत्य के।आचरण का परित्याग करना विवेकपूर्ण नही होता।

नचिकेता ने अपने पिता एवं गुरुसे अनुरोधपूवर्क् कहा कि वह संशय छोड़कर सत्याचरण पर दृढ रहें तथा सत्य की रक्षा के लिए उसे अपने वचनानुसार मृत्यु (यमराज)के पास जाने की अनुमति दे दें। महर्षि उद्दालक ने उसकी सत्यनिष्ठा से प्रभावित होकर उसे यमराज के पास जाने की अनुमति दे दी।

यमराज के भवन में जाकर नचिकेता को ज्ञात हुआ कि वे कीं बाहर गये हैं।नचिकेता ने बिना अन्न जल ही तीन दिन तक उनकी प्रतीक्षा की।यमराज के लौटने पर उनकी पत्नी ने उन्हें नचिकेता के अन्न-जल बिना ही उनकी प्रतीक्षा करने का समाचार दिया तथा उसका सम्मान करने का परामर्श दिया।

हे यमराज,(साक्षात) अग्निदेव ही (तेजस्वी) ब्राह्मण-अतिथि के रुप में (गृहस्थ) के घरों में प्रवेश करते हैं।

(अथवा ब्राह्मण -अतिथि घर में अग्नि की भांति प्रवेश करते हैं)। (उत्तम पुरुष) उसकी ऐसी शान्ति करते हैं, आप जल ले जाइये।

यमराज की पत्नी नचिकेता के तेजस्विता को देखकर चकित थी,उन्होंने यमराज से कहा-स्वयं अग्निदेव ही तेजस्वी ब्राह्मण-अतिथि के रुप में गृहस्थ जन के घरों में जाते हैं अथवा तेजस्वी ब्राह्मण अग्नि की भांति घर में प्रवेश करते हैं)।उत्तम पुरुष स्वागत करके उनको आदर-सम्मान देते हैं तथा उन्हें शान्त करते हैं। अतएव आप पादप्रक्षालन के लिए जल ले जाइये। आपके द्वारा सम्मान एवं सेवा से ही वे प्रसन्न होगे। नचिकेता दिव्य आभा से देदीप्यमान था।

यमराज की पत्नी ने यमराज से कहा कि तेजस्वभ् ब्रह्मण अतिथि को अपने घर पर कष्ट होने से गृहस्थ

पुरुष के पुण्य क्षीण हो जाते हैं। ऐसे मन्दबुद्धि गृहस्थ पुरुष को अनेक सुखों (अथवा सत्संग-लाभ) की प्राप्ति नहीं होती। उसकी वाणी में से सत्य, सौन्दर्य और माधुर्य (अथवा धर्म-संवाद श्रवण के लाभ) लुप्त हो जाते हैं तथा उसके यज्ञ दान आदि इष्ट कर्म और कूप धर्मशाला आदि के निर्माणरुप आपूर्त कर्म अर्थात सब शुभ कर्म भी नष्ट हो जाते हैं। अपने घर पर धर्मात्मा तेजस्वी एवं पूज्य अतिथि का असत्कार पुत्रों एवं पशुओं को भी विनष्ट कर देता है। अतिथिदेवो भव’-अतिथि को देवतुल्य मानकर उसका सत्कार करने की प्राचीन परम्परा है।

अपनी पत्नी के बचन सुनकर यमराज अविलम्ब नचिकेता के पास गये और उसकी समुचित अर्चना-पूजा की तथा इसके उपरान्त यमराज नचिकेता का संवाद प्रारंभ हो गया।

यम-नचिकेता-उपाख्यान अध्येता के मन मे अनेक शंकाएं उत्पन्न होती हैं। क्या नचिकेता यमलोक में सशरीर चला गया ? वह तीन दिन तक यम की अनुपस्थिति में यम-सदन में कैसे रहा ? वास्तव में यह एक उपाख्यान है, जिसके उपदेश एवं प्रतिपाद्य विषय-वस्तु का ग्रहण करना अभीष्ट है। हम इसके आलंकारिक रुप को ज्यों का त्यों अथवा यथार्थमय मानकर कथ्य को ग्रहण नहीं कर सकते। इसके वाचिक अर्थ न लेकर लाक्षणिक अर्थ लेना विवेकसम्मत है।

आख्यायिका-

शैली का प्रयोजन उसके तत्त्वार्थ को समझाना है ।

बृहदारण्यक उपनिषद् (अध्याय १, ब्राह्मण २, मंत्र १) मे कहा है कि सृष्टि से पूर्व सब कुछ मृत्यु से ही आवृत था (मृत्युनैवेदमावृतमासीत्)। यहां मृत्यु का अर्थ ब्रह्म, प्रलय है। पुनः (मंत्र १,२,७) कहा है ईश्वर के संकल्प को जाननेवाला उपासक मृत्यु को जीत लेता है तथा मृत्यु उसे पकड़ नहीं सकती (पुनर्मृत्युं जयति नैनं मृत्युराप्रोति ) । आगे (मंत्र १,३,२८) कहा है-असतो मा सद् गमय ,तमसों मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्माऽमृतं गमय-

हे प्रभो, मुझे असत् से सत् तम से ज्योति और मृत्यु से अमृत की ओर ले चलो, मुझे अमृतस्वरुप कर दो।

यम-नचिकेता का उपाख्यान ऋग्वेद के दसवें मंडल में कुछ भिन्न प्रकार से वर्णित है। वहां नचिकेता पिता की इच्छा से यम के समीप जाता है। तैक्तिरीय ब्राह्मण में यह उपाख्यान कुछ विकसित रुप में वर्णित है।

१. अतिथिदेवो भव (तै० उप० १.११.२)

है, जहां नचिकेता को यमराज तीन वरदान देता है। कठोपनिषद् के उपाख्यान तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण के उपाख्यान में पर्याप्त समानता है। तैत्तिरीय ब्राह्मण के उपाख्यान में यमराज मृत्यु पर विजय के लिए कुछ यज्ञादि का उपाय कहता है, किन्तु कठोपनिषद् कर्मकाण्ड से ऊपर उठकर ब्रह्मज्ञान की महत्ता को प्रतिष्ठित करता है। उपनिषदों में कर्मकाण्ड को ज्ञान की अपेक्षा अत्पन्त निकृष्ट कहा गया है।

कठोपनिषद्जै से श्रेष्ठ ज्ञान-ग्रन्ध का समारंभ रोचक,हृदयग्राही एवं सुन्दर होना उसके अनुरुप् ही है। मृत्यु के यथार्थ को समझाने के लिए साक्षात् मृत्यु के देवता यमराज को यमाचार्य के रुप में प्रस्तुत करना कठोपनिषद् के प्रणेता का अनुपम कौशल है।

वैदिक साहित्य में आचार्य को ‘मृत्यु’ के महत्त्वपूर्ण पद से अलंकृत किया गया है।’ आचार्यों मृत्यु :।’आचार्य मानो माता की भांति तीन दिन और तीन रात गर्भ में रखकर नवीन जन्म देता है। ‘नचिकेता’ का अर्थ ‘न

जाननेवाला,जिज्ञासु’ है तथा यमराज यमाचार्य है, मृत्यु के सदृश आंखे खोलनेवाले गुरु।

मृत्यु विवेकदायिनी गुरु है। जीवन के यथार्थ को जानने के लिए मृत्यु के रहस्य को समझना अत्यावश्यक है क्योंकि जीवन का स्वाभाविक अवसान मृत्यु के रुप में होता है। जीवन की पहेली का समाधान मृत्यु के रहस्य का उदघाटन करने मे सन्निहित है। जीवन मानों मृत्यु की धरोहर है तथा वह इसे चाहे जब विलुप्त कर सकती है।

सारे संसार को अपने आतंक से प्रकम्पित कर देनेवाले महापराक्रमी मनुष्य क्षणभर में सदा के लिए तिरोहित हो जाते हैं। जीवन और मृत्यु का रहस्य अनन्तकाल से जिज्ञासा का विषय बना हुआ है। धर्मग्रंथों ने तथा मनीषीजन ने इसके अगणित समाधान प्रस्तुत किये हैं, तथापि रहस्य का उद्धाटन एक गंभीर समस्या बना हुआ है।

जीवन का उद्गम कहां से होता है,जीवन क्या है और मृत्यु क्या है? जीवन और मृत्यु का यथार्थ जानने पर जीवन एक उल्लास तथा मृत्यु एक उत्सव हो जाते हैं। अज्ञान के कारण मृत्यु एक भयप्रद घटना तथा मृत्यु एक उत्सव हो जाते हैं। अज्ञान के कारण मृत्युएक भयप्रद घटना तथा जीवन निरुउद्देश्य भटकाव प्रतीत होते हैं।

साक्षात मृत्युदेव (यमराज) से ही जीवन और मृत्यु के रहस्य को जानने से बढ़कर अन्य क्या उपाय हो सकता है? जिज्ञासु नचिकेता यमराज का शरणागत, भयत्रस्त व्यक्ति नहीं है, बल्कि पूज्य् अतिथि है और सम्मानपूर्वक् उपदेश ग्रहण करता है। यह ब्रह्मज्ञान की महिमा है, जो दाता और गृहीता दोनों को पवित्र कर देता है। कठोपनिषद् के ऋषि का लेखन कौशल तथा शिक्षण शैली दोनों अनुपम हैं।

नचिकेता पिता एवं गुरु को अपने आचरण से प्रसन्न करने को प्राथमिकता देता है। यह नचिकेता की

श्रेष्ठता का लक्षण हैं। वह प्रथम वर में यही मांगता है कि वापस लौटने पर पिता चिंताशून्य,प्रसन्नचित क्रोधरहित होकर उससे पूर्ववत् स्नेह करें और संलाप करें। सुयोग्य पुत्र पिता के पारितोष को महत्त्व देता है।

यथा पुरस्ताद् भविता प्रतीत ओद्दालकिरारुणिर्मत्प्रसृष्ट:।

यमराज ने नचिकेता से कहा- तुझे मृत्यु के मुख से प्रमुक्त देखने पर मेरे द्वारा प्रेरित उद्दालक (तुम्हारा

पिता) पूर्ववत विश्वास करके क्रोध एवं दु:ख से रहित हो जायगा, (जीवन भर) रात्रियों में सुखपूर्वक् सोयेगा।

यमराज ने नचिकेता को उसकी इच्छानुसार वरदान दिया कि उसके पिता उद्दालक उसके मृत्यु के प्रमुक्त

देखकर कर पूर्ववत विश्वास करेंगे तथा क्रोध एवं शोक से रहित होकर शेष जीवन में रात्रियों में निश्चिन्त होकर

सोयेंगे, क्योंकि मैंने तुम्हें मुक्त कर दिया है।

यमदेव की कृपा से नचिकेता मृत्यु द्वारा प्रमुक्त हुआ। वास्तव में वह यमराज के दैवी प्रसाद से मृत्युभय से विमुक्त हो गया। यह नचिकेता के ब्रह्मज्ञान द्वारा मृत्यु पर विजय की पूर्वसूचना भी है।

नचिकेता ने कहा-स्वर्गलोक में किञ्चिन्मात्र भी भय नहीं है। वहां आप (मृत्युस्वरुप) भी नहीं हैं। वहां कोई जरा (वृद्धावस्था) से नहीं डरता। स्वर्गलोक के निवासी भूख-प्यास दोनों को पार करके शोक (दुःख) सेदूर

रहकर सुख भोगते हैं।

नचिकेता ने स्वर्ग का वर्णन करते हुए कहा-स्वर्गलोक में भय नहीं होता। वहां मृत्यु भी नहीं होती। वहां वृद्धावस्था भी नहीं होती वहां भूख-प्यास भी नहीं होते। वहां के निवासी दुःख नहीं भोगते तथा सुखपूर्वक रहते हैं। वास्तव में स्वर्ग चेतना की एक उच्चावस्था है, जब मनुष्य भय और चिन्ता से मुक्त रहता है तथा वृद्धावस्था और मृत्यु से पार चला जाता है और भूख-प्यास भी नहीं सताते। यह मानवीय चेतना के उच्च स्तर पर आनन्दभाव की एक

अवस्था है।

श्वेताश्वतर उपनिषद् (२.१२] में कहा गया है-अभ्यास करते हुए जब योगी का पांचों महाभूतों (मिटी, जल ,अग्नि, पांचों महाभूतों (मिट्टी, जल, अग्नि,

बायु और आकाश) पर अधिकार हो जाता है, तब शरीर योगाग्निमय हो जाता है और…हो जाता है और योगी रोग,वृद्धावस्था और मृत्यु का अतिक्रमण कर लेता है। वह इच्छानुसार प्राणत्याग करता है।

ऐसा ही योगदर्शन (३.४.४४, ४५, ४६) में भी कहा गया है।

न तस्य रोगो न जरा न मृत्यु: प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम् (श्वेत० उप० २.१२) आध्यात्मिक साधक देहाध्यास (मैं देह हूं यह भाव) से मुक्त होकर ही ‘अहं ब्रह्मास्मि’ की अनुभूति कर सकता है।

स त्वमग्नि स्वग्ग्यमध्येषि मृत्यों प्रब्रूहि त्वं श्रद्दधानाय मह्यम।

स्वर्गलोका अमृतत्वं भजन्त एतद् द्वितीयेन वृणे वरेण ॥१३॥

हे मृत्युदेव , वह आप स्वर्गप्राप्ति की साधनरुप अग्नि को जानते हैं। आप मुझ श्रद्धालु को उसे बता दें।

स्वर्गलोक के निवासी अतृप्तभाव को प्राप्त हो जाते हैं मैं यह दूसरा वर मांगता हूं।

नचिकेता ने यमराज से स्वर्ग के सुखों की चर्चा करते हुए कहा-वहां वृद्धावस्था,रोग और मृत्यु का भय

नहीं है, भूख प्यास का कष्ट भी नहीं है तथा वहां के निवासी शोक को पार करके आनन्द भोगते हैं, किन्तु स्वर्गप्राप्ति का साधनरुप अग्नि-विज्ञान क्या है? हे देव, मैं श्रद्धालु होने के कारण इस महत्त्वपूर्ण ज्ञान को प्राप्त करने के लिए सत्पात्र हूं। कृपया मुझे इसका उपदेश करें। यह मैं दूसरा वर मांगता हूं।

बास्तव में नचिकेता यह मात्र जिज्ञासा-संतुष्टि के लिए पूछता है।

स्वर्गाग्नि को जानकर बह इसे अनावश्यक कह देगा, क्योकि उसकी प्रधान रुचि तृतीय वर द्वारा आत्मज्ञान प्राप्त करने में है।

उपनिषद् कर्मकाण्ड को ज्ञानप्राप्ति की अपेक्षा तुचछ एवं निम्न घोषित करते हैं। (मंत्र १४, १५, १६, १७, १८ में अग्नि-विज्ञान की चर्चा की गयी है।

यमराज अग्निविद्या के ज्ञाता हैं और वे नचिकेता को इसे यथार्थ रुप में समझाने का आश्वासन देते हैं। यह

विद्या अनन्तलोक को प्राप्त करा देती है तथा हृदय -गुहा में ही सन्निहित रहता है।

धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम् ।

उपनिषद् कर्मकाण्ड तथा स्वर्ग आदि को महत्त्व नहीं देते तथा अन्त:करण की शुद्धि ही कर्मकाण्ड का उद्देश्य होता है। तत्त्वज्ञान ही सर्वोच्च है।

लोकादिमग्निं तमुवाच तस्मै या इष्टका यावरतीर्वा यथा वा।

स चापि तत्प्रत्पवदद्यथोक्तमथास्य मृत्युः पुनरेवाह तुष्टः ॥१५॥

वचनामृत: उस लोकादि अग्निविद्या को उसे (नचिकेता को )कह दिया। (कुण्डनिर्माण इत्यादि में) जो-जो अथवा जितनी-जितनी ईंटें (आवश्यक होती हैं) अथवा जिस प्रकार (उनका चयन हो)। और उस (नचिकेता) ने भी उसे जैसा कहा गया था, पुन: सुना दिया। इसके बाद यमराज उस पर संतुष्ट होकर पुन: बोले।

आचार्य यमदेव ने स्वर्गलोक की साधनरुपा अग्निविद्या की गोपनीयता कहकर नचिकेता को उसे समझा दिया। यमदेव ने कुण्डनिर्माण आदि के लिए जिस आकर की और जितनी ईंटें आवश्यक होती हैं तथा उनका जिस प्रकार चयन होता है, यह सब समझा दिया । नचिकेता कुशाग्रबुद्धि था, अतएव उसने जैसा सुना था, वैसा ही सुना दिया।

यमाचार्य ने उसकी बुद्धि की विलक्षणता से संतुष्ट होकर उसे इसके आगे भी कुछ समझाया।

तमब्रवीत प्रीयमाणो महात्मा वरं तवेहाद्य ददामि भूय:।

तवैव नामा भवितायमग्नि : सृक्ङां चेमामनेकरुपां गृहाण ॥१६॥

महात्मा यमराज प्रसन्न एवं परितुष्ट होकर उससे बोले-अब मैं तुम्हें यहां पुन: एक (अतिरिक्त) वर देता हूं। यह अग्नि तुम्हारे ही नाम से विख्यात होगी। और इस अनेक रुपोंवाली माला को स्वीकार करो।

यदि गुरु शिष्य के आचरण से प्रसन्न हो जाता है तो वह उसे अपना सर्वस्व लुटा देना चाहता है।

आचार्यरुप महात्मा यमराज ने परम प्रसन्न एंव परितुष्ट होकर नचिकेता को बिना उसके मांगे हुए ही एक अतिरिक्त वर दे दिया कि वह विशेष अग्नि भविष्य में ‘नाचिकेत अग्नि’ के नाम से प्रख्यात होगी। अतिप्रसन्न यमराज ने नचिकेता को एक दिव्य माला (रत्नमाला) भी भेंट कर दी।

अब तीसरा वर क्या था जिसे न बताने की जिद पर यमाचार्य अड़ते है लेकिन नचिकेता जानने की जिद करते है, वो ज्ञान आप लिंक में पढ़िए और जीवन को गढ़िए क्योंकि मैंने स्वयं ये तीसरी बार पढ़ने के बाद post करने का मन बनाया।

अद्भुत..इस विचार को पूरा पढ़ने के लिए जीवन गढ़ने के लिए साहस चाहिए लेकिन इस संदर्भ में Ravi Jaitley jaitley जी का मानना है कि अगर आधार नहीं है तो इस को पढ़ना ही नहीं होगा.

” अति यानि बाढ़ और बाढ़ में स्वच्छ जल नही आता “

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