फेंक नही : नेक एनकाउंटर

(सामाजिक, राजनीतिक तमाम मुद्दों पर बेबाकी से अपनी बात विभिन्न मंचो पर रखने वाले अजय कुमार झा का बतौर अतिथि संपादक प्रस्तुत है अग्रलेख)

हो सकता है कि , इस बात पर ही पहली आपत्ति हो कि क्या पुलिस द्वारा हाल ही में मार गिराए गए दुर्दांत अपराधी विकास दूबे के इस पूरे कृत्य को इस तरह से भी देखा समझा जा सकता है क्या ? प्रश्न ये भी उठाया जा सकता है / जा रहा है कि ये पुलिस ,व्यवस्था ,प्रशासन , न्याय व्यवस्था आदि जैसे संस्थाओं के ऊपर आए अविश्वास का परिणाम न माना जाए ?इसके आलावा ऐसे तमाम अगर मगर वाले प्रश्न , संदेह , आरोप लगाए जा रहे हैं जो स्वाभाविक है।

इस विषय पर कुछ भी लिखने कहने और समझने से पहले एक सबसे जरूरी प्रश्न जिसे बाक़ी आरोपों और इल्ज़ामों (किसने मारा , क्यों मारा , और सबसे हल्ला इस बात पर कि कैसे मारा , सीधा मार ही क्यों दिया ) के बीच कहीं दबा दिया जा रहा है या दरकिनार किया जा रहा है वो ये कि मरने वाला कौन था ? 

विकास दूबे जिसके मरने के बाद आसपास के तमाम गाँव आपस में मिठाई खिला कर एक दूसरे को इस बात की बधाई दे रहे हैं कि अब उन्हें किसी ऐसे डर और आतंक के साये में आगे नहीं जीना पड़ेगा। वो विकास दूबे जो किसी मजबूरी में या अपने/अपनों के ऊपर हुए किसी अत्याचार के खिलाफ लड़ने के लिए पेशेवर मुजरिम नहीं बना था बल्कि वर्षों पूर्व आई एक पिक्चर “अर्जुन पंडित ” में निभाए गए एक चरित्र से प्रेरित होकर ,खुद को अपराध की दुनिया का बेताज बेख़ौफ़ और बेलगाम डॉन बनाने के सपने के लिए इस दुनिया में आया था।

एक बार अपराध की दुनिया में कदम रख देने के बाद , भारतीय राजनीति के सबसे निकृष्ट और घिनौने चरित्र , राजनेताओं की आपराधिक सांठ गाँठ का एक मोहरा बनते उसे देर नहीं लगी। उत्तर प्रदेश ,बिहार जैसे राज्यों में जहां सत्ता तक पहुँच बनाने और फिर उस वर्चस्व को कायम रखने के लिए इन जैसे पट्ठों को हमेशा ही पाल पोस कर एक हत्यारे को समाज के लिए आतंक और दहशत का पर्याय बनाने के स्तर तक का संरक्षण दिया जाने की संस्कृति रही हो ,वहाँ ऐसे अनेकों विकास दूबे आज भी संरक्षित और सुरक्षित हैं।

इस पूरे घटनाक्रम में सबसे पुलिस , मीडिया , राजनीतिज्ञ और खुद अदालती व्यवस्था पर न सिर्फ आम लोगों द्वारा सवाल खड़े किये जा रहे हैं बल्कि इन्हें और इन सबको ही , इन हालातों के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। सबसे पहले सोचने वाली बात ये है कि ये सब और इन जैसी तमाम वर्गों के लोग , इनमें कार्यरत व्यक्ति यहीं के इसी समाज के ,हमारे आपके बीच के लोग हैं और हमेशा होते हैं। समाज को पुलिस वैसी ही मिलेगी , डाक्टर ,शिक्षक , राजनेता और अपराधी भी वैसे ही मिलते हैं जैसा समाज खुद होता है। इसलिए यदि समाज के किसी को भी किसी से शिकायत है या होती है तो प्रश्न सबसे पहले खुद से पूछा जाना जरुरी हो जाता है

विकास दूबे की मौत के इस सारे घटनाक्रम में ,विनय तिवारी जैसे पुलिसकर्मी और इनकी सारी करतूत पार्श्व में चली जाती है।यदि विकास दूबे अपनी गैंग के पचास साठ लोगों के साथ उस पूरे क्षेत्र पर अपने आतंक और हिंसा का राज़ चला रहा था तो वो सिर्फ और सिर्फ इसलिए क्यूंकि उसके साथ हर कदम पर पुलिस , उसका उपयोग करने वाले राजनीतिक दल और राजेनता , कमज़ोर व धीमी न्याय व्यवस्था थी। यही कारण था कि एक हत्या से शुरू हुआ ये सफर पचास से अधिक निर्दोष लोगों की ह्त्या और फिर आठ पुलिस वालों तक की नृशंस ह्त्या तक निर्बाध और निरंतर चलता रहा , और आगे भी यूँ ही चलता रहने वाला था।

सबसे बड़ी विडंबना ये है कि इस और ऐसे तमाम घटनाओं में,  परिस्थितियों को उलझाने और भ्रम फैला कर फिर खुद ही उसका शिकार होने वाले तमाम लोग न ही तथ्यात्मक रूप से सही होते हैं न ही इसके विधिक , प्रशासनिक ,न्यायिक पहलुओं की जानकारी रखते हैं। नतीजा होता है आधा ज्ञान ज्यादा खतरनाक वाला।जिसे जिस विषय की रत्ती भर भी जानकारी नहीं होती , समझ नहीं होती वो उतने ही पुरज़ोर तरीके से सिर्फ अपनी बात को सामने रख देता है और फिर उसे सही गलत साबित करने के लिए अपने इस प्रपंच को और आगे बढ़ता है।

ये सिलसिला यहीं नहीं रुकता , मामला तब और भी अधिक गंभीर हो जाता है जब विषय को समझने वाले लोग भी , अपने अपने स्वार्थ और एजेंडे के तहत काम करने /कहने की विवशता के कारण जान बूझ कर ऐसे मामलों को अपने कथ्यों और करनी से एक अलग ही दृष्टिकोण दे देते हैं।

प्रश्न उछाल कर तमाशा करने और फिर आराम से देखने वालों से क्या नहीं पूछा जा सकता कि ऐसे घटनाक्रमों पर सिर्फ और सिर्फ सम्बंधित पक्षों , प्रभावित वर्ग और व्यक्तियों को कुछ भी कहने सुनाने का अधिकार है फिर चाहे तो पुलिस हो ,अदालत हो ,या उस अपराधी का परिवार।

अन्ततः , सारी चीख पुकार और चिल्ल पौं को सिरे से दरकिनार करके सिर्फ ये सोचा जाना और समझा जाना चाहिए कि एक व्यक्ति जो अपने कुकर्मों की वजह से समाज , देश , कानून ,व्यवस्था के लिए नासूर सा होकर एक लाइलाज बीमारी बन गया था और पूरी इंसानियत के लिए एक खतरा बन चुका था उसका अंत निश्चित रूप से जरूरी था और वो हो गया । सोचा जाना चाहिए उसके परिवार और नाबालिग बच्चे के विषय में जो इस सारे प्रकरण पर हो रहे तमाशे को देख कर भविष्य में इस समाज ,पुलिस , व्यवस्था को अपना दुश्मन मान और समझ कर कल को एक दूसरा विकास दूबे बनने की राह पर न चल पड़े जैसा की आमतौर पर हो जाता है

(ये लेखक के नीजि विचार हैं,इससे किसी को सहमत होना आवश्यक नहीं)