आनंद मिश्रा : धर्म पर नकारात्मकता नासा या इसरो से नहीं एंथ्रोपोलाॅजी से स्नातक वोक-लिबरल्स की तरफ़ से आती..
1975 में अमेरिका की एक लेफ्ट-लीनिंग मैगजीन ‘द ह्युमनिस्ट’ ने ज्योतिष-शास्त्र के विरूद्ध एक स्टेटमेंट जारी किया था ‘ऑब्जेक्शन्स टू एस्ट्रोलाॅजी’ नाम से और इसके लिए देशभर के वैज्ञानिकों से समर्थन माँगा। तब मशहूर वैज्ञानिक कार्ल सैगन, जिन्हें स्वयं ज्योतिष पर थोड़ा भी विश्वास नहीं था उन्होंने इस स्टेटमेंट पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया। कार्ल सैगन ने कहा- “मुझे इस स्टेटमेन्ट पर आपत्ति है क्योंकि इसकी टोन ऑथोरिटरियन है, और ऐसा लगता है कि इसका उद्देश्य रेशनल थिंकिन्ग को प्रोमोट करने के बजाय ज्योतिष पर विश्वास करने वालों को नीचा दिखाना है।”
यह 20वीं सदी के सबसे लोकप्रिय वैज्ञानिक का उन लेफ्टिस्टों को जवाब था जो खुद अफ्रीका-विमर्श पढ़कर वैज्ञानिक चेतना के ध्वजवाहक बनने निकले थे। जो सच में विज्ञान से संबन्ध रखते हैं वह हंबल हो जाते हैं, उनके टोन में एरोगेन्स नहीं होता, उनमें कोई अनावश्यक दुराग्रह नहीं होता, बल्कि इन्हीं कार्ल सैगन ने अपनी किताब काॅस्मोस में काल-गणना पर पुराणों के एप्रोच की प्रशंसा की है।
विज्ञान दाखिल-ख़ारिज की भाषा में बात नहीं करता, न पूर्णता का दावा करता है। आप यहाँ भी चेक कर सकते हैं, जो भी विज्ञान बनाम धर्म का नैरेटिव खड़ा करता दिखे, जो धर्म के प्रति किसी भी दुराग्रहपूर्ण स्टेटमेंट के साथ दिखे वह कोई आर्ट्स-ह्युमनिटीज पढ़ा हुआ वोक-लिबरल निकलेगा। उनसे विज्ञान के साधारण नियमों के बारे पूछा जाए तो वह फैज की नज़्म सुनाने लगेंगे।
वह ख़ुद को वैज्ञानिक चेतना के प्रोमोटर के तौर पर क्यों दर्शाते है? क्योंकि इन्हें अपना दुराग्रह सिद्ध करना है। यह अफ्रीकन स्टडीज टाइप विषय ही क्यों पढ़े होते हैं? क्योंकि विज्ञान में गुणवत्ता का पैमाना बहुत ऑब्जेक्टिव और स्पष्ट है जबकि साहित्य, समाजशास्त्र में एक-दूसरे की खुजाकर काम चल जाता है।
हिन्दुओं को भी विज्ञान पर निगेटिव टिप्पणी करने से या किसी इर्रेशनल विचार को प्रोत्साहित करने से बचना चाहिए। इससे धर्म बनाम विज्ञान का नैरेटिव सशक्त होता है। धर्म पर अधिकांश नकारात्मक टिप्पणियाँ इसरो या नासा की तरफ़ से नहीं, एंथ्रोपोलाॅजी से स्नातक वोक-लिबरल्स की तरफ़ से आती हैं जिनकी कोई क्रेडिबिलिटी नहीं है। इसरो वाले तो अपने अभियान से पहले तिरुपति में पूजा-अर्चना भी कर आते हैं।
सूर्यग्रहण के दिन लाखों लोग नदियों में डुबकी लगाते हैं पर उन लाखों लोगों में एक सिंगल ऐसा व्यक्ति नहीं होता जो यह मानता हो कि सूर्य को राहु ने निगल लिया है, एक तथ्य यह भी है कि डार्विन की इवाॅल्यूशन थ्योरी को अब अधिकांश हिन्दू स्वीकार करते हैं जबकि पाकिस्तान या अरब देशों में इस थ्योरी को व्यापक स्वीकार्यता नहीं मिल सकी है। धर्म और विज्ञान न एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हैं न पूरक, इन दोनों के बीच केवल शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की आवश्यकता है जिसकी सबसे ज्यादा गुंजाइश हिन्दू संस्कृति में ही है।
