टीशा अग्रवाल : यादों से..बाकी तो… सबकी अपनी अपनी सोच एंड आल इज वेल!

पाणिग्रहण संस्कार का सपना हर माता पिता अपने बच्चों के लिए संजोते है। अपनी बिटिया का कन्यादान करना( इस पर पूर्व में ही मैं अपना पक्ष रख चुकी हूँ…यह दान की प्रक्रिया नहीं अपितु हमारा अभिमान और संस्कार है) हर बिटिया के माता पिता का गौरव है।

हमारे धर्म में विवाह न तो कोई करार है, और न ही मनोरंजन हेतु कुछ समय के लिये किये जाने वाला कोई हस्ताक्षर! विवाह हमारे यहां सोलह संस्कारों में से एक संस्कार है। हमारी सभ्यता, हमारी संस्कृति हमारा संस्कार है।

पाणिग्रहण संस्कार का सपना हर माता पिता अपने बच्चों के लिए संजोते है। अपनी बिटिया का कन्यादान करना( इस पर पूर्व में ही मैं अपना पक्ष रख चुकी हूँ…यह दान की प्रक्रिया नहीं अपितु हमारा अभिमान और संस्कार है) हर बिटिया के माता पिता का गौरव है।

बात जब विवाह की आती है तो आपको सबसे पहले क्या याद आता है? मेरा दावा है कि बहुत से लोगों को विवाह के नाम पर अग्नि के समक्ष फेरे लगाते एक जोड़ा याद आता होगा जो स्वयं वचन में बंध कर इस पवित्र बंधन को जन्म जन्मांतर तक निभाने का वचन देते हैं।

हमारे माता पिता के विवाह तक विवाह का मतलब ही इस पवित्र बंधन में बंधना ही होता था। जिमनवार होता था, जिसमे पत्तल दोने में रसोई परोसी जाती थी, और खूब मनुहार कर कर भोजन परोसा जाता था।

लड़के वालों की तरफ से जो जितना क्लोज़ होता था, उसे लड़की वालों की तरफ से उतने ही ज्यादा लड्डू और गुलाबजामुन खिलाने वालों की होड़ लग जाती थी।

मारवाड़ियों में मनुहार का एक अलग ही स्थान होता है। और समझदार व्यक्ति जब आधा पेट भर जाता है, तब ही खाने से मना कर देता है…क्योंकि उसे पता है कि असली खिलाई पिलाई तो समधी जी के पेट भर जाने के बाद होती है।

हँसते हँसाते, बन्ने बन्निया गाते और कहीं कहीं ब्याईयों को गाली काढ़ते ( यह भी एक रिवाज का हिस्सा है) विदाई के साथ यह विवाह की रस्म सम्पूर्ण मानी जाती थी।

जैसे जैसे हम आधुनिक हुए, हमारे संयुक्त परिवार छिन्नभिन्न हुए। एकल परिवार बढ़ने लगे….और यहीं से बढ़ने लगी ‘हमारी मर्जी’ ‘हमारी खुशी’ जैसी अवधारणा।

बच्चे गाँवो और छोटे कस्बों से निकल कर शहर की और रुख करने लगे। पिता की विरासत सम्भालते सम्भालते दुकान में बैठना असहज करने लगा। तो कभी माता पिता के बड़े सपनों को पूरा करते बच्चे डॉक्टर, इंजीनियर और बड़े अफसर बनते गए।

फिर जब अपने घर के ब्याह शादी में आते तो उन्हें पत्तल दोने में भोजन करना, और दौड़ दौड़कर परोसगारी करना बड़ा ही उलझन वाला लगने लगा।
बच्चे जब पैसा कमाने लगे तो ‘उनकी मर्जी’ के अनुसार बुफे सिस्टम रखा जाने लगा…जो शहरों में ज्यादा कॉमन था, बनिस्पत कस्बों के।

यहीं से शुरू हुई आधुनिकता की होड़ और आधुनिकरण के नाम पर हमारे संस्कारों की उपेक्षा। उच्च धनाड्य वर्ग ने इसे सबसे पहले अपनाया। जयमाल की रस्म मंच पर होना शुरू हुई, धीरे धीरे वो कल्चर बन गया। अवश्यम्भावी हो गया।

ठीक वैसे ही मनोरंजन के लिये शुरू हुए बन्ने बन्नी के गीतों की जगह महिला संगीत, और अब ‘ डांस नाईट ‘ ‘थीम नाईट’ ने ले ली।

सकुचाती सी शर्माती सी नज़रे ज़मीन में गड़ाती दुल्हन अब हँस हँस खुशमिजाज तरीके से फोटो खिंचाने लगी।

यहाँ तक सब मनमोहक सा था। स्वीकारणीय था। पर अपने पैसों के प्रदर्शन और ‘क्लास’ को दिखाने के चलते एक कदम और जुड़ गया…प्रि वेडिंग शूट के नाम पर।

सभ्यता, शालीनता और मर्यादा में रहते यह फोटोज़ को बड़ी स्क्रीन पर रिसेप्शन के दिन दिखाया भी जाने लगा! किन्तु हद तो तब हुई जब प्रि वेडिंग के नाम पर
लगभग प्रि हनीमून सी फोटोज़ दिखाई जाने लगी।

उससे उबर ही रहे थे कि यह दुल्हन की नाचते गाते इंट्री की ‘परंपरा’ शुरू हो गई।
सबके अपने सोचने के तरीके हैं…पर मुझे दुल्हन वही लगती है जो नजाकत से आए और हल्की मुस्कराहट के साथ कदम बढ़ाए। कभी किसी की मनुहार पर थोड़ा सा थिरक ले तो सारा माहौल जगमगा सा जाए। विवाह का उत्सव दूल्हा दुल्हन की ख़ुशी में दोगुना हो जाए।

पर आजकल जैसे उछलते कूदते इंट्री होती है वो मुझे तो शोभनीय नहीं लगती। ढोल पर थोड़ा थिरकना और बेहूदा गाने पर नाचते कूदते आने में बहुत अंतर है।

यह सच है कि अपनी खुशी को अपने अनुसार अभिव्यक्त करने का अधिकार सबको होता है, किन्तु यह सब बहुत ही क्लोज़ घरवालों के साथ किया जा सकता है। हजारों लोगों के बीच मे यह सब होना विवाह संस्कार नहीं बल्कि किसी डांस इंडिया डांस का थीम एंट्री लगती है।

पर इसके साथ मुझे आपत्ति उन शब्दों को लेकर भी है, जो इन दिनों सोशल मीडिया पर दुल्हनों और उनके माता पिता के लिए लिखे जा रहे। स्वयं के घर की स्त्री को अपना मान मानना, और दूसरे की बिटिया के लिये इस तरह अपमानित करने वाले शब्दों का प्रयोग निश्चित ही निराशाजनक है।

विरोध दर्ज करने का यह तरीका निश्चित रूप से दूल्हन कि कूदते हुए इंट्री से ज्यादा फूहड़ है।

ख़ैर…

‘करेले पर नीम चढ़ा’ जैसी एक और आधुनिक परम्परा आपका इंतजार कर रही हैं, जहां पर आजकल सो कॉल्ड मार्डन माता पिता फेरे के बाद…पण्डित जी से यह कहलवाते हुए पाए गए हैं …

” You may kiss the bride ”

मतलब की फेरे सम्पन्न हुए…अब दूल्हा दुल्हन को चूम सकता है।

जिसमे पंडित जी के मना करने पर स्वयं वर के पिता ने बहुत ही चौड़ी छाती करते हुए यह कहा है, और दूल्हा दुल्हन ने सबके सामने यह किया भी है।

अशोभनीयता अपने चरम पर है। यही वक्त हैं कि हम सम्भल जाएं और कम से कम अपने घरों में यह सब न होने दें और इस आधुनिकता की दौड़ में अपने पाणिग्रहण संस्कार को किनारे न कर दें।

रिश्तेदारों और परिवारों के बीच हँसी मजाक और ढेर सारी मस्ती के बीच किसी इवेंट मैनेजमेंट को न आने दें। विवाह को विवाह रहने दें कोई स्टेज शो नहीं।

बाकी तो… सबकी अपनी अपनी सोच एंड आल इज वेल!

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