बिपिन पांडे : NDTV का पतन और पत्रकारिता -1

एक समय था जब रवीश कुमार को बेहद पसंद करता था । आज भी पसंद करता हूँ क्योंकि बाकी टीवी पत्रकारों/एंकरों के मुकाबिले में वे मुझे अब भी ज्यादा बेहतर दिखते हैं । सौम्य तरीके से सवाल करते हैं,कोई पैनल में है तो उसे बोलने का मौका देते हैं और बड़ा शान्त तरीके से उनके प्राइम टाइम में बहस की जाती है । पर जैसे-जैसे समझ बढ़ती गयी तो लगने लगा कि किसी को बेहद पसंद करने के लिए बस इतना ही काफी नहीं होता, खासकर ताब जब वह जनचेतना का अगुआ बनने का ख़म ठोंक रहा हो ।

आज से करीबन 5-6 साल पहले तक मै शायद ही उनका कोई प्राइम टाइम का शो मिस करता था । कई बार रात में ना देख पाने के बाद दिन में ऑफिस टाइम में भी उनका शो देखा था ।
साल 2015-16 के गर्मियों के दिनों में मै ऑफिस के काम से रायपुर गया हुआ था । जिस होटल में रुका था वहां जब रात में 9 बजे NDTV ट्यून करना चाहा तो पता लगा कि केबल पर वह चैनल ही नहीं आता । उन दिनों शो देखने की कुछ ऐसी तलब थी कि मैंने सीधे होटल के फ्रंट डेस्क पर कॉल किया और उनसे निवेदन किया कि NDTV चैनल टीवी पर आना ही चाहिए । अगर ऐसा नहीं हुआ तो हम कल सुबह में होटल बदल देंगे।

अगले दिन होटल वालों ने केबल वालों से बातचीत करके मेरे कमरे की टीवी में रवीश कुमार का प्राइम टाइम चलवा ही दिया। मेरी नज़र में चैनल और पत्रकार रवीश कुमार दोनों ही एक ही थे । मैं NDTV देखता ही इसीलिए था कि उसपर रवीश कुमार आते थे । उन दिनों उनका ब्लॉग ‘दालान’ खूब पढ़ा करता था । उनपर टिप्पणियाँ किया करता था।

यह सब करके मुझे लगता था कि मैं बाकी लोगों से ज्यादा जागरूक नागरिक हूँ । खुद को थोड़ा-थोड़ा बुद्धिमान भी समझता था । धीरे-धीरे रवीश एक कुंठित व्यक्ति में बदलते गए । एक अजीब तरह का फ्रस्टेशन उनके पोस्ट्स और शो में नज़र आने लगा । वे अपने को सच्चा पत्रकार और बाकी सबको ‘गोदी मीडिया’ के नाम से पुकारने लगे । उनकी पत्रकारिता में एक स्पष्ट पार्टी और विचार के प्रति झुकाव स्पष्ट नज़र आने लगा। यही से मैंने उनको देखना कम कर दिया ।
पत्रकारिता में ndtv और रवीश कुमार दोनों ‘व्हाईट मैन बर्डन’ के कब शिकार हो गए उन्हें पता ही नहीं लगा। दोनों के हिसाब से इस देश के सौ करोड़ से ज्यादा लोग अचानक से मुर्ख और फासीवादी हो गए, उनमे जातिवाद का वायरस पनपने लगा।

मजे की बात यह कि ndtv और रवीश कुमार को यह लगता था कि सब ठीक करने की जिम्मेदारी उन्ही की है । बस उन्होंने 100 करोड़ जनता को अपने हिसाब से समझदार बनाने के ठान ली । उनके हिसाब से जनता समझदार होना ही नहीं चाहती थी, जिसके चलते वे दिन दोगुनी, रात चौगुनी मेहनत करने लगे । पर अफ़सोस जितनी दोनों मेहनत करते, उतना ही उनके प्रशंसक कम होते जाते । आज जीरो टी.आर.पी का दम्भ भरते-भरते चैनल के बिकने की नौबत आ गयी ।

गौर से देखने पर पता चलता है कि जिस ‘गोदी मिडिया’ शब्द को उन्होंने पाल-पोसकर बड़ा किया उसको पैदा करने वाले वही तो थे । जबतक माहौल अनुकूल रहा तबतक तो चैनल खिचता रहा । पर जैसे ही माहौल बदला मामला बिगड़ता चला गया । शायद रवीश कुमार और उन जैसे तमाम लोगों को अब जनता को नासमझ और मुर्ख मानना बंद करना चाहिए । बदलते समय में बहुत कुछ स्पष्ट दिखने लगा है कि कौन किसकी गोद में बैठा हुआ है । वैसे पत्रकारिता लम्बे समय से किसी न किसी के गोद में ही बैठकर होती रही है । दिक्कत तब होती है जब आप जिस गोद में बैठे हो उसे छोड़कर बाकी सब गोदें दिखती है ।

सोशल मिडिया पर रोना मचा हुआ है कि अब सच्चाई का साथ कौन देगा ? रवीश जी तो बेरोजगार हो गए । आखिर कौन सामाजिक समरसता और ज्ञान की मशाल लेकर पथ प्रदर्शक बनेगा । ऐसे तमाम रोते हुए लोगों में मैं भी शामिल होता अगर मैंने खुद सोचना शुरू नहीं किया होता ।

धैर्य रखिये, सच्चाई की रिपोर्टिंग आगे भी होती रहेगी । हजारों-हजार पत्रकार यह काम बिना किसी को मुर्ख समझे, बिना किसी की गोद में बैठे यह सब कर रहे हैं, पहले भी करते रहे हैं, आगे भी करते रहेंगे । जनता को मुर्ख समझकर, शासन को शत्रु समझकर , राजनीति करते हुए, निरपेक्ष दिखकर पत्रकारिता करने के दिन अब लद चुके हैं । देखा जाए तो यह अच्छा भी है । उम्मीद है नवीन ndtv फिर से प्रोफेशन तरीके से काम शुरू करेगा । जनता को मुर्ख नहीं समझेगा और मेरा उस चैनल के प्रति प्यार दुबारा वापस आ पाएगा….।

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