पंकज कुमार झा : रैनकोट पहन कर आप नहा नहीं सकते.. हिंसा। प्रतिहिंसा। अहिंसा।
हिंसा। प्रतिहिंसा। अहिंसा।
हिंसा थीसिस। अहिंसा सिंथेसिस। प्रतिहिंसा एंटीथीसिस।
प्रतिहिंसा विशुद्ध नैसर्गिक मानवीय गुण है। इसे आप एक निर्दोष उदाहरण से समझिए। मान लें आपके अबोध बच्चे को मेज से चोट लग जाती है, तो सामान्यतया आप क्या करते हैं? निश्चित ही गोद में लेकर उसे प्यार करते होंगे। है न? लेकिन …
लेकिन स्वतःस्फूर्त ही आप एक काम और करते हैं। आप उस मेज को पीट देते हैं, और बच्चे को कहते हैं, देखो हमनें भी मारा इसे। उसे भी चोट लगी। और फिर बच्चे को संतोष हो जाता है। है कि नहीं?
सनातन भी कभी अत्यधिक अहिंसा का पक्षधर नहीं रहा है। रावण की सभा में बांध कर लाये गए महाबली हनुमान जी ने भी अपने किए ‘हिंसा’ को इसी तर्क से सही कहा था कि – ‘जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे।’ अर्थात उन्होंने मुझे मारा इसलिये मैंने उन्हें मारा। सिम्पल। तो ..
तो, अहिंसा क्या एक वाहियात वस्तु है?
नहीं, मेरी समझ से वह कृत्रिम तो है लेकिन अनावश्यक नहीं। कुछ-कुछ वैसा ही, जैसे बिल्कुल नग्न पैदा हुए शिशु को कपड़े पहनाना। कपड़ा पहनना है तो कृत्रिम पर सभ्यता के लिये यह ज़रूरी है। किंतु…
किंतु इस अहिंसा यानी कपड़े पहनने की भी एक सीमा है। शौच जाते समय, स्नानादि एवं अन्य ‘भौतिक’ कार्य सम्पादित करते हुए हमें प्राकृतिक अवस्था में आना होता ही है। नग्न होना ही पड़ता है कभी-कभी। यह नग्न होना ही प्रतिहिंसा है।
एक लोक कहावत भी आपने सुना होगा कि नंगों से … डरे। यह नग्न होना प्राकृतिक आवश्यकता है, वैसा ही जैसे प्रतिहिंसा। जैसे क्रिया की प्रतिक्रिया। हालांकि यह काफी कम समय के लिए करना होता है, पर होता अनिवार्य है।
अंततः यह तो आप भी मानेंगे ही न कि रैनकोट पहन कर आप नहा नहीं सकते…
असंगत तो नहीं कहा न?