बैशाखी पर्व.. ” चिड़ियों से मैं बाज बनाऊं, सवा लाख से एक लड़ाऊं, तब गोबिंद सिंह नाम कहाऊं ।।”
औरंगजेब ख़ुद वहां उपस्थित था। उसकी इज़्ज़त का सवाल था; पूरे इस्लाम के लिये प्रतिष्ठा का प्रश्न था ! आख़िरकार जब इस्लाम कबूलवाने की ज़िद्द पर इस्लाम न कबूलने का हौसला अडिग रहा तो जल्लाद की तलवार चली और प्रकाश अपने स्त्रोत में लीन हो गया। आज वह शहीदी स्थल “शीश गंज गुरुद्वारा” के नाम से प्रसिद्ध है।
बैसाखी पर्व की हार्दिक शुभ कामनाएं।
आज बैसाखी का पावन पर्व समस्त भारत में हर्षोल्लास से मनाया जा रहा है। यह पर्व विभिन्न प्रान्तों में भाषान्तर से विभिन्न नामों से जाना जाता है जैसे विशु, वैशाखडी, मेशादी, भाग विहु, पंथडु। वस्तुत: यह पर्व रबी आदि फ़सलों के आगमन की ख़ुशी में मनाया जाता है।
इस पावन पर्व पर सभी देशवासियों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ।
खालसा पन्थ स्थापना दिवस
बैसाखी के शुभदिन पर सन्त सिपाही श्रीगुरु गोबिन्द सिंह महाराज को मैं नमन करता हूँ जिन्होंने बैसाखी के दिन सन् 1699 में खालसा पन्थ की स्थापना कर के, हिन्दु धर्म की रक्षा के अभियान को ,जो सिख गुरुओं ने चला रखा था, मूर्तिरूप दिया।
उन्होंने हिन्दु समाज को जगाने के लिये आह्वान किया :
” जे आरज तूँ खालस होंवें,
हस हस सीस धरम हित खोंवें।”
हे आर्य ! यदि तुम शुद्ध आर्य हो,
तुम्हें धर्म के लिए सिर कटाने में सहर्ष उद्यत रहना चाहिए।
वे अदम्य साहस और आत्मविश्वास से ओत-प्रोत थे।
उनका कथन था :
” चिड़ियों से मैं बाज बनाऊं,
सवा लाख से एक लड़ाऊं,
तब गोबिंद सिंह नाम कहाऊं ।।”
” खालसा पंथ ” की स्थापना करते समय उन्होंने एक विशेष पोशाक निर्धारित की जो लड़ाई के लिए उपयुक्त थी । सबसे पहले उनका मनोबल बढ़ाने के लिए उन्होंने सबको अपने नाम के साथ सिंह (शेर) लिखने का आदेश दिया।
पंच ककार — सैनिक परिधान ( Martial Dress)
i) लड़ाई के लिए धोती उपयुक्त परिधान नहीं है। अतः उन्होंने इसके लिए ” कच्छा ” ( Shorts) पहनने का आदेश किया।
ii) रक्षा के लिए सदा ” कृपाण” (तलवार ) साथ रखने को कहा है ताकि अचानक हमले करने पर, आप दु:शमन का सामना दृढ़ता से कर सकें।
iii) तलवार से लड़ाई दहिने हाथ से लड़ी जाती है, इसलिए कलाई (Wrist) की सुरक्षा के लिए उन्होंने “कड़ा” ( लोहे का मोटा कंगन) दहिने हाथ पर सदा पहने रखने का प्रावधान किया है
iv) उन्होंने ” केश” ( सिर के बाल और दाढ़ी ) रखने का आदेश दिया।
v) केशों को संभालने के लिए “कंधे” ( Comb) की आवश्यकता को देखते हुए ” पांच ककार ” में इसे भी सम्मिलित कर दिया गया।।
गुरु गोविंद सिंह के आह्वान पर हज़ारों अनुयायियों ने हिन्दु धर्म की रक्षा के लिये अपने जीवन की आहूति दी। यहां तक कि उनके चार सुपुत्रों ने मुग़ल अत्याचार का सामना करते हुए अपने प्राणों की बलि दी। इस्लाम मज़हब कबूल न करने के कारण उनके दो 9 और 11 वर्ष के नन्हें बच्चों को तो क्रूर मुग़लों ने ज़िन्दा दीवार में चिनवा दिया था।
क्रूर मौलवी ने एक शाहज़ादे से कहा, ” यदि इस्लाम क़बूल कर लो, तो तुम ज़िन्दा रहे सकते हो।” सुसंस्कृत बच्चे ने फटाक से उत्तर दिया, ” यदि मैं इस्लाम क़बूल कर लूं तो क्या सदा ज़िन्दा रहूंगा ? ” लज्जित मौलवी अवाक् रह गया परन्तु उसकी मृत ज़मीर जागृत न हुई।
यह हर्ष का विषय है कि भारत सरकार ने इन वीर बालकों की स्मृति में गुरु तेग बहादुर के जन्म दिवस पर ” वीर बाल दिवस ‘ मनाने का निर्णय लिया। यह निर्णय न केवल शहीद बालकों के प्रति कृतज्ञता का परिचायक है, अपितु नव पीढ़ी में देश के प्रति समर्पण भाव तथा बलिदान के लिए तत्पर रहने के लिए प्रेरणास्पद है।
सिख गुरुओं तथा उनके अनुयायियों के वीरतापूर्ण बलिदानों के फलस्वरूप हिन्दु धर्म ज़िन्दा है, अन्यथा मुग़लों के क्रूर और अमानवीय अत्याचारों से हमारा ज़बरदस्ती धर्मान्तरण हो गया होता और हम अपनी पवित्र धार्मिक पद्धति से वंचित हो गए होते।
सिख गुरुओं के बलिदानों की लम्बी परम्परा है। सिखों के पांचवें गुरु अर्जन देव को दानवीय मुग़लों ने दहकते तवे ( Hot Iron Plate) पर बिठा कर ऊपर से तपाई गई रेत ( Hot Sand) डाल कर हत्या की।
गुरु गोबिन्द सिंह के पिता गुरु तेग बहादुर के अदम्य साहस और बलिदान को नमन करते हुए आज वह दिन स्मरण करने योग्य हैं। क्यों कि यह तारीख़ गवाह है हिन्दू के हिन्दू बने रहने की।
दिल्ली में लाल किला के सामने 24 नवम्बर 1675 के दिन हज़ारों लोग इक्ट्ठा हुए , जहां शर्त के मुताबिक यह फ़ैसला होना था कि अगर गुरु तेग बहादुर इस्लाम कबूल कर लेते हैं, तो हिन्दुओं को मुस्लिम बनना होगा, बिना किसी ज़ोर ज़बरदस्ती के। हिन्दु समाज की सांसें अटकी हुई थीं कि क्या होगा ? गुरु जी अडिग बैठे थे।
औरंगजेब ख़ुद वहां उपस्थित था। उसकी इज़्ज़त का सवाल था; पूरे इस्लाम के लिये प्रतिष्ठा का प्रश्न था ! आख़िरकार जब इस्लाम कबूलवाने की ज़िद्द पर इस्लाम न कबूलने का हौसला अडिग रहा तो जल्लाद की तलवार चली और प्रकाश अपने स्त्रोत में लीन हो गया। आज वह शहीदी स्थल “शीश गंज गुरुद्वारा” के नाम से प्रसिद्ध है।
जब गुरु तेग बहादुर शहीद हुए, गुरु गोबिन्द सिंह की आयु केवल 9 वर्ष की थी। वे प्रतिभावान थे; आध्यात्मिक प्रवृत्ति के थे। कहा जाता है कि उन्होंने ही अपने पिता को बलिदान देने के लिए प्रेरित किया था। जब कुछ शिष्य सशर्त धर्मान्तरण का प्रस्ताव गुरु तेग बहादुर के पास ले कर आए, तो बालक गोबिंदराय ने पिता से कहा ” आपसे अधिक कौन हिन्दुओं का प्रतिनिधित्व कर सकता है ?” अपने अध्यात्मिक बच्चे के तर्क को स्वीकार करते हुए, उन्होंने इस प्रस्ताव को स्वीकार किया।
यहां यह स्मरण रखना आवश्यक है कि एकमात्र गुरु गोबिन्द सिंह हैं जिन्हें गुरु पद अपने पिता से विरासत में , जन समुदाय द्वारा श्रद्धाभाव से सौंपा गया। अन्य सभी गुरु पूर्व गुरुओं के शिष्य थे। ‘ ष ‘ अक्षर का उच्चारण ‘ ख ‘ और ‘श’ का ‘स’ भी होता है। इसलिए वे शिष्य ‘सिख’ कहलाए। सिंह शब्द का प्रयोग तथा केश धारण की प्रथा भी गुरु गोबिन्द सिंह के “खालसा पन्थ” की स्थापना के बाद हुई है।
गुरु गोबिन्द सिंह सन्त सिपाही तो थे ही , वे उत्कृष्ट राजनीतिज्ञ भी थे। वे जानते थे ” खालसा पन्थ ” को संगठन रूप में स्थापित करने के बाद, आध्यात्मिक गुरु का चयन दूभर हो जाएगा। अत: उन्होंने आदेश दिया कि उनके बाद, आध्यात्मिक मार्गदर्शन के लिए ” गुरु ग्रन्थ साहब ” ही एक मात्र “गुरु” होंगे।
इतना ही नहीं इनको हिन्दू आस्था पद्घति का गहन ज्ञान था। उन्हें भय था कि कहीं उनके अनुयायी उनके प्रति अनन्य श्रद्धाभाव से उन्हें ” अवतार ” न मानने लग जाएं । अत: उन्होंने आदेश दिया :
” जो कोई मोहि परमेश्वर उचरहिं,
ते नर घोर नरक विच परहिं,
हम हैं सब भगतन को दासा,
देखन आयों जगत तमाशा ।।”
खेद है कि उनके स्पष्ट आदेश के बावजूद, उनके कुछ भक्तजन , उन्हें, ” कलगी अवतार ” कह कर संबोधित करते हैं। उच्चारण की दृष्टि से, यह “कल्कि अवतार” के समकक्ष हो जाता है, तथा क्योंकि वे अपनी पगड़ी पर मोर पंख नुमा एक कलगी लगाते थे, जो श्रीकृष्ण जी के मुकुट पर मोरपंख के समान दिखाई देने से, उनकी आभा को बढ़ा देती है।
गुरु गोबिन्द सिंह एक कवि भी थे। उनकी सरस्वती स्तुति की निम्न पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं :
” कर वन्द करौं पग वन्दन को,
अरविन्द मलिंद अलिंद मलिन्दन,
कर वेणुवती मोहि देहु मति
विघ्नान हती दु:ख दुन्द निकन्दन ।।”
हिन्दु समाज सिख गुरुओं एवं उनके अनुयायियों के बलिदान के लिये सदा ऋणी रहेगा। उनके पुण्य बलिदानों का, हमारा आस्तित्व बनाए रखने में, अविस्मरणीय योगदान है।
शत-शत नमन।
विद्यासागर वर्मा
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जलियांवाला बाग़ शहीदों को नमन
बैसाखी के पावन पर्व पर ही सन् 1919 में एक जघन्य नरसंहार जलियांवाला बाग़ अमृतसर में हुआ जहां निहथ्थे शान्तिपूर्ण स्वतन्त्रता सम्बंधी समारोह पर गोलियों की बौछार कर दी गयी। हम आज उनकी स्मृति में उन शहीदों को एवं शहीद उधम सिंह को भावभीनी श्रद्धांजलि देते हैं, जिन्होंने 20 साल के बाद जनरल डायर की हत्या करके बदला लिया।
इस नरसंहार के विरोध में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपना सर (Sir) का ख़िताब अंग्रेज़ी सरकार को वापस कर दिया था।
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शुभ कामनाएँ
विद्यासागर वर्मा
पूर्व राजदूत
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