डॉ. सुरेंद्र जैन : अनुसूचित जाति के हितों पर डाका बर्दाश्त नहीं.. जनजागरण से खोलेंगे पोल

स्वर्गीय जवाहरलाल नेहरू और स्वर्गीय इंदिरा गांधी ने भी इस मांग को अनुचित करार दिया था।

नईदिल्ली. मतांतरित अनुसूचित समाज को आरक्षण का लाभ दिलाने की मांग न केवल संविधान विरोधी और राष्ट्र विरोधी है अपितु अनुसूचित जाति के अधिकारों पर खुला डाका है। विश्व हिंदू परिषद के संयुक्त महामंत्री डॉ सुरेंद्र जैन ने इस पर आगे कहा है कि मिशनरी व मौलवी बार-बार यही दोहराते हैं कि उनके मजहब में जाति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं है और उनका मजहब स्वीकार करने के बाद कोई पिछड़ा नहीं रह जाता है। इसके बावजूद जब वे मतांतरितों के लिए बार-बार आरक्षण की मांग करते हैं तो न केवल उनका समानता का दावा खोखला सिद्ध होता है अपितु, उनके गलत इरादों का भी पर्दाफाश होता है। उनका उद्देश्य न्याय दिलाना नहीं अपितु मतांतरण की प्रक्रिया को तेज करना है। यह अनुचित मांग न केवल सामाजिक न्याय अपितु संविधान की मूल भावना के विपरीत किया गया एक षड्यंत्र है।

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डॉ जैन ने कहा 1932 में पूना पैक्ट करते समय डॉक्टर भीमराव अंबेडकर और महात्मा गांधी ने अनुसूचित जाति के लिए आरक्षण पर सहमति व्यक्त की थी। दुर्भाग्य से 1936 से ही मिशनरी और मौलवी मतांतरित अनुसूचित समाज के लिए आरक्षण की मांग सड़क से लेकर संसद तक निरंतर उठाते रहे हैं। 1936 में महात्मा गांधी और डॉक्टर अंबेडकर ने इस मांग को अनुचित ठहराया था। संविधान सभा में भी जब इस मांग को पुनः उठाया गया तो संविधान निर्माता डॉक्टर अंबेडकर ने इसे देश विरोधी सिद्ध करते हुए ठुकरा दिया था।

स्वर्गीय जवाहरलाल नेहरू और स्वर्गीय इंदिरा गांधी ने भी इस मांग को अनुचित करार दिया था। इसी मांग को लेकर 1995 में दिल्ली में एक 10 दिवसीय धरने का आयोजन मिशनरियों के द्वारा किया गया था जिसमें सामाजिक समानता और सेवा की ध्वज वाहक माने जाने वाली स्वर्गीय मदर टेरेसा ने भाग लिया था। विहिप नेता ने आरोप लगाया कि बार-बार ठुकराने की बावजूद उनकी निरंतरता यह सिद्ध करती है कि उनके पीछे धर्मांतरण करने वाली अंतर्राष्ट्रीय शक्तियां काम कर रही हैं।

डॉ सुरेंद्र जैन ने बताया कि संविधान सभा व संसद द्वारा बार बार ठुकराने पर वे न्यायपालिका में भी जाते रहे हैं और न्यायपालिका भी इनकी अनुचित मांग को ठुकराते रही है। 1985 में “सुसाइ व अन्य विरुद्ध भारत सरकार” मामले में तो माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट निर्देश दिया था कि मतांतरित अनुसूचित जाति को आरक्षण की मांग संविधान की मूल भावना के विपरीत है। इसके बावजूद 2004 में एक बार फिर से न्यायपालिका में गए जो मामला अभी तक लंबित है।

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