सुमंत विद्वांस : ऐसे लोगों को विशेष इलाज की आवश्यकता है..

कनाडा में कंपनियां हमें हिन्दी में विज्ञापन दिखा रही हैं और भारत में कुछ लोग रो रहे हैं कि हिन्दी भाषी मप्र में हिन्दी का उपयोग क्यों बढ़ाया जा रहा है।

Veerchhattisgarh

जब 2020 में कोविड आया और फिर 2022 में रूस-यूक्रेन का युद्ध शुरू हुआ, तब मुझे पता चला कि हजारों की संख्या में भारतीय छात्र डॉक्टरी पढ़ने चीन, यूक्रेन और न जाने किन-किन देशों में जाते हैं। वहां मेडिकल की पढ़ाई करने के लिए वे चीनी, रूसी, यूक्रेनी और पता नहीं कौन कौन सी भाषाएं सीखते होंगे। लेकिन भारत में तर्क दिया जा रहा है कि हिन्दी में पढ़ाई नहीं हो सकती। जिस किसी को लगता है कि चीनी या यूक्रेनी भाषा में पढ़कर कोई डॉक्टर मप्र में मरीज का इलाज कर सकता है लेकिन हिन्दी में पढ़कर नहीं कर पाएगा, वास्तव में ऐसे लोगों को विशेष इलाज की आवश्यकता है।

जिन्हें यह चिंता है कि हिन्दी माध्यम में पढ़ने वाले छात्र शोध में पिछड़ जाएंगे, उन्हें पहले यह बात समझनी चाहिए कि जो छात्र आज बेसिक अंग्रेजी को समझने के संघर्ष में ही उलझा रहता है, वह आज भी एमबीबीएस के बाद रिसर्च करने नहीं जा रहा है। वह तो एमबीबीएस को ही समझने में जूझ रहा है। जिसे शोध करना है, वह उसके बाद भी कर सकता है और अंग्रेजी कोई ऐसी भयंकर भाषा नहीं है जिसके लिए केजी से पीएचडी तक 30 साल अंग्रेजी पढ़नी पड़े। छः महीने का कोर्स करके अंग्रेजी सीखी जा सकती है। वास्तव में लोगों को इस भ्रम से भी बाहर निकलना चाहिए कि रिसर्च केवल अंग्रेजी भाषा में ही की जा सकती है।

मप्र में मेडिकल की हिन्दी पढ़ाई केवल एक ही कारण से विफल हो सकती है, यदि पाठ्यक्रम बनाने वालों ने अति शुद्ध, क्लिष्ट हिन्दी अथवा अत्यधिक अंग्रेजी शब्दों का उपयोग किया हो। यदि उन्होंने अंग्रेजी और हिन्दी शब्दों का उचित संतुलन साध लिया है तो निश्चित रूप से यह नई पहल बहुत सफल होने वाली है और अन्य राज्य भी अपनी अपनी भाषाओं में इसका अनुकरण करेंगे।

सबसे बुरी गुलामी वही है, जिसमें गुलाम अपनी गुलामी को ही अपनी आजादी मानता है और गुलाम बने रहने के लिए संघर्ष करता है। कृपया आप उस गुलामी में मत फंसिए। अंग्रेजी को केवल एक भाषा समझकर सीखिए, उसे अपना सर्वस्व मत मानिए।

 

 

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