कोरोना वैक्सीन : अब तक नहीं लगाने पर वैधानिक रूप से क्या होगा..?

कई बार अनशन पर बैठे लोगों को जबरन खाना खिलाने के मामले में देश की उच्च और सर्वोच्च अदलतों ने इस विषय पर विचार किया है।
पिछले साल मेघालय उच्च न्यायालय ने भी इस मामले में अपनी राय रखी थी।

कोरोना वैक्सीन को लेकर विरोध शुरू से ही हो रहा है और हाल ही में ऑस्ट्रियाई अदालत से छूट पाने वाले नोवाक जोकोविच भी वैक्सीन के विरोधी हैं लेकिन वैक्सीन का विरोध करना भारत में वैधानिक रूप से कितना सही है यह एक बड़ा सवाल है। लोक हित और निजी अधिकार के बीच का यह द्वंद पुरातन है। भारत की अदालतों ने भी इस तरह के मामलों में अपनी टिप्पणियों से स्थिति साफ करने का प्रयास किया है।

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कोरोना वायरस की वैक्सीन  लगवाने का विरोध नया नहीं हैं।शुरू से ही टीकाकरण पर संदेह जताने वाले, और वैक्सीन ना लगवाने वाले लोगों ने अपना ऐतराज जाहिर किया है।हाल ही में यह मामला तब और उछला जब सर्बिया के टेनिस स्टार नोवाक जोकोविच, जो वैक्सीन नहीं लगवा रहे हैं, ने ऑस्ट्रेलिया में अपने हक में मुकदमा जीता भारत में भी वैक्सीन नहीं लगाने वालों के खिलाफ कई तरह के शर्तें रखी जा रही हैं। कहीं यात्रा से लेकर वर्कप्लेस पर है लेकिन क्या भारत में इसका कोई कानूनी आधार है इस पर कोर्ट की क्या राय है…

भारत में विरोध की वजह राजनैतिक ज्यादा

भारत में वैक्सीन ना लगवाना अधिकार का कम राजनैतिक मामला ज्यादा माना जाता रहा है। कई लोगों ने वैक्सीन का विरोध किया है वह राजनैतिक आधार पर किया है लेकिन सवाल यही है क्या कोई मानव अधिकार के आधार पर यह दावा करे कि वह अपने शरीर पर सुई चुभाने की इजाजत नहीं देगा और ऐसा करना उसका निजी अधिकार है तो क्या ऐसा संभव है।

कितना उचित है विरोध

ऐसा दुनिया के कई देशों में हो रहा है जहां लोग वैक्सीन के साइड इफेक्ट के चलते उसे लगवाना नहीं चाहते  हैं और ऐसा करना वे अपना हक समझते हैं. यह वास्तव में एक बहस का विषय भी है। वैक्सीन के पैरोकारों की एक तगड़ी दलील यह है कि क्या लोगों को यह हक दिया जा सकता है कि वह खुद को संक्रमित होने देकर दूसरों के संक्रमण का कारण बन जाएं?

कितना उचित है दबाव डालना

पिछले साल कोविड-19 की दूसरी लहर के दौरान सैन्य कर्मचारियों को कारण बताओ नोटिस देने का मामला सामने आया था क्योंकि उन्होंने वैक्सीन लगवाने से मना कर दिया था। वहीं गुजरात में भी व्यापारियों को ऐसा कहने के बात सामने आई थी कि अगर उन्होंने अपने कर्मचारियों को वैक्सीन नहीं लगवाई तो उनकी दुकानें बंद कर दी जाएंगी।

पुराना विरोधाभास

यह विरोधाभास नया नहीं हैं इसे लोकहित और निजी अधिकारों के बीच का विरोधाभास कहते हैं।   स्वास्थ्य और विश्वास के मामलों में यह राज्य की जिम्मेदारी वह लोकहित और अधिकारों के बीच में संतुलन और समन्वय की स्थिति बनाने का काम करे। विश्व युद्ध के बाद मौत, विनाश जैसे सकंटों का हवाला देते हुए कई बार लोगों के अधिकारों को छीनने का काम भी किया गया है।

संविधान के प्रावधान की संवेदनशीलता

भारत के संविधान की धारा14 से लेकर 22 तक अधिकारों की चर्चा हुई है इसमें धारा 21 लोगों को जीने का अधिकार, निजता का अधिकार देती है। लेकिन इसमें कुछ अपवादों की छूट दी गई जो विवाद का विषय बन जाते हैं। इसे न्यायिक तौर पर औचित्य की कसौटी में कसा जाना चाहिए। कई बार अनशन पर बैठे लोगों को जबरन खाना खिलाने के मामले में देश की उच्च और सर्वोच्च अदलतों ने इस विषय पर विचार किया है।
पिछले साल मेघालय उच्च न्यायालय ने भी इस मामले में अपनी राय रखी थी। अदालत ने कहा था कि यह साफ और स्पष्ट तौर पर समझा जाना चाहिए की टीकाकरण अभी की जरूरत है जिससे वैश्विक महामारी से निपटा जा सकता है। अदालत ने महान न्यायविद कार्डोजो को उद्धृत करते हुए यह भी कहा कि हर व्यस्क और मानसिक रूप स्वस्थ मानव को यह तय करने का अधिकार है कि उसके शरीर के साथ क्या किया जाना चाहिए।अदालत ने अंत में कहा कि उसे अनिवार्य या जबरस्ती वाले टीकाकारण को सही ठहराने का कोई वैधानिक या संवैधानिक कारण नहीं दिखता।

 

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