जयराम शुक्ल : भारत का राष्ट्रवाद पुरातन-सनातन ..यूरोपीय देशों का राष्ट्रवाद दो विश्वयुद्धों की कोख से जन्मा…

राष्ट्रवाद विमर्श के केंद्र में वैसे ही है जैसे पाँच सात साल पहले तक हिंदुत्व हुआ करता था। हिंदुत्व को लेकर कथित बौद्धिको के विमर्श की दिशा अधोगामी थी। उनकी दृष्टि में देश की सभी समस्याओं, फसादों की जड़ हिंदुत्व ही है। इन लोगों के ऐसा मानने के राजनीतिक, आर्थिक और वैचारिक कारण हैं। 

ये धर्म और जाति के आधार पर गोलबंदी करके पिछले छह दशकों से सत्ता के साकेत का सुख भोगते रहे। दूसरे ऐसे लोग उन स्वयंसेवी संगठनों से पोषित हुए जो पेट्रो व यूरो डालर के दमपर विकासशील देशों में अपना धार्मिक एजेंडा चलाने के मिशन पर लगे हैं।

 

बीच बहस में राष्ट्रवाद पर चर्चा.. 

हमारे देश भारतवर्ष में राष्ट्र की अवधारणा पश्चिम के देशों से अलग है। यूरोपीय देशों का राष्ट्रवाद दो विश्वयुद्धों की कोख से जन्मा है जबकि हमारा राष्ट्रवाद पुरातन और सनातन है।

 

विगत गणतंत्र दिवस पर भारतमाता मंदिर की वार्षिक व्याख्यान श्रृंखला में राष्ट्रवाद पर विमर्श हुआ। भारतमाता मंदिर हरिद्वार या बनारस भर में नहीं, अपने रीवा में भी है। यहां के कर्मठ और मनस्वी समाजसेवी संतोष कुमार पांडेय ने अपने एकल श्रम से यहां छोटा सा भारतमाता मंदिर बनाया है। उनकी निष्ठा का इससे बड़ा प्रमाण और क्या.. कि व्याख्यानमाला का यह निरंतर बीसवां वर्ष है।

 

व्याख्यान का विषय था- राष्ट्रवाद क्या और क्यों? दरअसल यह विषय मैंने ही सुझाया था क्योंकि यह पिछले कुछेक सालों से अपने दिल-ओ-दिमाग में इसीको लेकर मंथन चल रहा रहा है। इस वर्ष मुख्य व्याख्याकार बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के भारत अध्ययन केंद्र के विद्वान प्राध्यापक राकेश उपाध्याय थे। अध्यक्षता की लोकसाहित्य/संस्कृति के सुविख्यात मर्मज्ञ डा. चंद्रिका प्रसाद चंद्र ने।अपन ने भी इस विषय पर विचार रखे।

इन दिनों राष्ट्रवाद विमर्श के केंद्र में वैसे ही है जैसे पाँच सात साल पहले तक हिंदुत्व हुआ करता था। हिंदुत्व को लेकर कथित बौद्धिको के विमर्श की दिशा अधोगामी थी। उनकी दृष्टि में देश की सभी समस्याओं, फसादों की जड़ हिंदुत्व ही है। इन लोगों के ऐसा मानने के राजनीतिक, आर्थिक और वैचारिक कारण हैं।

ये धर्म और जाति के आधार पर गोलबंदी करके पिछले छह दशकों से सत्ता के साकेत का सुख भोगते रहे। दूसरे ऐसे लोग उन स्वयंसेवी संगठनों से पोषित हुए जो पेट्रो व यूरो डालर के दमपर विकासशील देशों में अपना धार्मिक एजेंडा चलाने के मिशन पर लगे हैं। तीसरे वामपंथी दीक्षा से प्रभावित हैं जिनके लिए मार्क्स का दास कैपिटल ही गीता है और माओस्तेतुंग अवतारी पुरुष।

नरेन्द्र मोदीजी के नेतृत्व में भाजपा और उसके साथी दलों की जीत ने हिंदुत्व को लेकर धारणा ऐसे पलटी कि राहुल गांधी कुरते के ऊपर जनेऊ पहनने लगे, कामरेड सीताराम येचुरी सिरपर कलश धरकर भागवत् यात्रा में निकलने लगे और अपने मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री तो हनुमानमय हो गए, लंका में सीता का मंदिर बनवाने जा रहे हैं। अब उनकी सरकार को रामवनगमन पथ की चिंता भी सताने लगी है।  छद्म धर्मनिरपेक्षता और मुस्लिम तुष्टीकरण की प्रतिक्रिया स्वरूप जब बहुसंख्यक वर्ग ने ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं’  की हुंकार भरी तब वे सभी सकते में आ गए जो खुले मुँह हिंदू को साम्प्रदायिक और समाज में जहर घोलने वाला कहा करते थे। जो बातें कभी हिंदुत्व को लेकर कही जाती थीं अब वही सब की सब इनके विमर्श संभाषणों में राष्ट्रवाद और राष्ट्रवादियों को लेकर कही जाने लगी हैं।

सो इसलिए पहले यह जान लेना जरूरी है कि राष्ट्र क्या है, राष्ट्रवाद क्या है इसके आधारभूत तत्वों को हम जान समझ लें। हमारे देश भारतवर्ष में राष्ट्र की अवधारणा पश्चिम के देशों से अलग है। यूरोपीय देशों का राष्ट्रवाद दो विश्वयुद्धों की कोख से जन्मा है जबकि हमारा राष्ट्रवाद पुरातन और सनातन है।

आज का राजनीति शास्त्र कहता है कि राष्ट्र की परिभाषा एक ऐसे जनसमूह के रूप में की जा सकती है जो कि भौगोलिक सीमाओं में एक निश्चित देश में रहता हो और जिसमें एकता के सूत्र में बाँधने की उत्सुकता तथा समान राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं पाई जाती हों।

भारत के संदर्भ में राष्ट्र की अवधारणा वृस्तित व व्यापक है। हम वसुधैव कुटुम्बकम की बात करते हैं। हम सर्वेभवन्तु सुखिनः की कामना करते हैं।

हमारा धर्म सार्वभौमिक है उसका कोई नाम नहीं, वह सनातन है, सृष्टि के अस्तित्व में और प्राणियों में चेतना के आने के साथ ही।

इसलिए हम प्राणियों में सद्भावना और जगत के कल्याण की बात करते हैं। हम धर्म की जय की कामना करते हैं। क्योंकि धर्म हमारे लिए रिलीजन नहीं बल्कि हमारे समाजिक जीवन में कर्तव्य और आचरण का विषय है। हमारी परिभाषा में धर्म वह तत्व है जो मनुजता को पशुता से अलग पहचान देता है।

युगों से हमारा धर्म ही हमारा राष्ट्रधर्म रहा है। हमारी राष्ट्रीय चेतना वेदकाल से अस्तित्वमान रही है। अथर्ववेद में धरती माता का यशोगान किया गया है।

माता भूमिः पुत्रोहं पृथ्विव्याः

अर्थात भूमि माता है और मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ। हम भारतीयों के लिए राष्ट्र कागज में रेखांकित नक्शा कभी नहीं रहा। राष्ट्र हमारे लिए भाव है।

लंका विजय के पश्चात जब लक्ष्मण वहीं निवास करने की बात करते हैं तब श्रीराम उन्हें उपदेश देते हैं-

अपि स्वर्णमयी लंका न में लक्ष्मण रोचते,

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी

लक्ष्मण सोने की लंका तो कहीं लगती ही नहीं जन्मभूमि हमारी माता है..उसके समक्ष स्वर्ग भी तुच्छ है।

महाभारत का जो युद्ध हुआ वह वस्तुतः राष्ट्रधर्म के संस्थापनार्थ हुआ। राष्ट्र उच्च नैतिक मानदंडों का भाव है। महाभारत में इसके संकेत बड़े ही खूबसूरत और प्रग्या चक्षु को खोलने वाले हैं।

गीता में जो उपदेश कृष्ण ने दिया है उसके निहितार्थ को समझने की जरूरत है…सुप्रसिद्ध श्लोक है- यदा यदा हि धर्मश्य ग्लानिर्भवति भारतः, परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुश्कृतां अभ्युत्थानम् च धर्मश्य संभवामि युगे -युगे।

यहां श्रीकृष्ण जिस धर्म की बात करते हैं वस्तुतः वह राष्ट्रधर्म है। वे कहते हैं कि जब धर्म के पतन से राष्ट्र का अस्तित्व खतरे में पड़ता है तब मनुष्यों के अभ्युत्थान के लिए मैं आता हूँ।

महाभारत में एक नैतिक मूल्यों के राष्ट्र की स्थापना के लिए युद्ध हुआ है। यह युद्ध विदेशी ताकतों के खिलाफ सीमा विस्तार या साम्राज्यवाद की पिपासा के लिए नहीं था। राष्ट्रधर्म से पथभ्रष्ट व पतित हुए अपनों के खिलाफ राष्ट्रवादियों का युद्ध था।

देखिये कितने शानदार प्रतीक हैं..धर्मराज युधिष्ठिर के नेत्तृत्व में धृत राष्ट्र की सेना के खिलाफ युद्ध है। धृतराष्ट्र यानी कि दिशा और दृष्टहीन राष्ट्र के खिलाफ..। संदेश साफ है कि देश के भीतर भी यदि कोई राष्ट्र के खिलाफ काम करता है तो उसको दंड देना अपरिहार्य है। इसलिए मेरा मानना है कि राष्ट्र सीमाओं से परे एक भाव है।

आप यह भी कह सकते हैं कि जो देश नाम का तत्व है न वह वस्तुतः देह है। राष्ट्र उसकी आत्मा है, उसका प्राण है। राष्ट्रीय तत्व के समाप्त होते ही देश भी पार्थिव शरीर की भाँति हो जाएगा।

हमारे यहां राष्ट्र शब्द के समानार्थी शब्दों ने बड़ी समस्याएं खड़ी कर रखी हैं। राष्ट्र को अँग्रेजी में नेशन और उर्दू में कौम कहते हैं। मूलतः यूरोप के नेशन की अवधारणा अलग है। इसी तरह कौम भी बिलकुल अलग बात है।

यूरोप का नेशन जियोपलटिकल है, एक तरह से भूगोलजन्य राजनीतिक। उसी तरह कौम एक रिलियस इनटाइटी है। अक्सर एक शब्द सुनने को मिलता है कि हम अपनी कौम के लोगों से तकरीर करता हूँ, अपील करता हूँ। कौम शब्द का आशय सहधर्मी नागरिकों के नेशन से निकलता है। सत्तर साल से  कौमी एकता का ढिंढोरा पीटा जाता रहा है…हर धर्मावलंबियों को अलग-अलग कौमें बताते हुए..एक राष्ट्र में इतनी सारी कौमें.. यानी कि राष्ट्र के भीतर भी कई राष्ट्र। बौद्धिकों ने ऐसे ही विमर्श दिए राष्ट्र को खंड-खंड राष्ट्रों में बाँटते हुए।

राष्ट्र बिल्कुल अलग है। जयशंकर प्रसाद का प्रसिद्ध आह्वान गीत है- हम करें राष्ट्र आराधन..। प्रसाद ने यह भाव चाणक्य कालीन भारत से लिए है। सम्राट चंद्रगुप्त के मगध-पाटिलपुत्र के समकालीन और भी राज्य थे जिन्हें जनपद, महाजनपद कहा गया। चाणक्य ने इन जनपदों-महाजनपदों के समूह को जोड़कर विशाल भारत गणराज्य की अवधारणा दी। जो तत्व मिलकर गणराज्य बनाते हैं वस्तुतः वही राष्ट्रभाव है। प्रसाद उसी भाव की आधारशिला पर खड़े राष्ट्र के आराधन की बात करते हैं।

अब आते हैं राष्ट्रवाद पर। राजनीतिशास्त्र कहता है- राष्ट्रवाद के निर्णायक तत्त्वों में राष्ट्रीयता की भावना सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। राष्ट्रीयता की भावना किसी राष्ट्र के सदस्यों में पाई जाने वाली सामुदायिक भावना है जो उनका संगठन सुदृढ़ करती है।

हमारे राष्ट्रवाद की अवधारणा सनातन है, चिरंतन और नित्यनूतन है। इसके मूल में राजनीति व भूगोल नहीं अपितु संस्कृति है..। इसलिए भारत का जो राष्ट्रवाद है वह वस्तुतः सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है।

भारत का अध्यात्म, अध्यात्म आधारित जीवन और उसपर आधारित धर्म ही हमारे देश भारत के राष्ट्रवाद का, यानी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का नियामक है। उस अध्यात्म से, अध्यात्म आधारित जीवन से और उसपर आधारित धर्म से यानी इस संपूर्ण से राग, लगाव, अनुराग ही हमारी राष्ट्रीयता का पर्यायवाची है।

यही अपनी संपूर्णता में भारत के प्रति हमारी भक्ति के रूप में हमें स्पंदित करता रहता है और अनायास ही बिना किसी प्रयास के, भारत को अपनी जननी, भारत माँ मानकर उसकी जय-जयकार कह उठता है।

इसी स्पंदन के कारण हमें अपने देश के जीवन, व संस्कृति के विविध रूपों की अभिव्यक्तियों से हम अपनी राष्ट्रीयता के भाव से एकाकार हो जाते हैं। एक ही वाक्य में कह दें तो यही हमारा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है।

 

यदि और सरल तरीके से कहें कि राष्ट्रवाद का भाव वही भाव है जिसकी बदौलत भगत सिंह और अन्य रणबांकुरे फाँसी पर चढ़ गए। यह वही भाव है जिसके चलते परमवीर अब्दुल हमीद, मेजर सोमनाथ और भी कई अन्य सेनानियों ने अपना प्राणोत्सर्ग कर दिया।

यह राष्ट्रीय भाव और राष्ट्रवाद ही भारतीय समाज को जोड़े हुए है। समाज समय के साथ परिवर्तनशील है। लेकिन यह परिवर्तनशीलता भौतिक है नैतिक मूल्य आज भी वही हैं जो सनातन से चलते चले आ रहे हैं।

इसलिए राष्ट्रवाद की मेरी कल्पना यह है कि प्रयोजन उपस्थित होने पर सारा ही देश मानव- जाति की प्राणरक्षा के लिए स्वेच्छापूर्वक मृत्यु का आलिंगन करे। उसमें जाति व धर्मद्वेष के लिए कोई स्थान नहीं। मेरी कामना है कि हमारा राष्ट्रप्रेम ऐसा ही हो।

संपर्कः8225812813

jairamshuklarewa@gmail.com

 

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