प्रसंगवश..हरीश चंद्र शर्मा : IAS अफसर तपस्या परिहार..प्रतिबद्धता के समर्पण का नाम है कन्यादान

दुर्भाग्य से हमारे संस्कारों के बारे में ज्ञान के लिये हमारी शिक्षा मे कोई स्थान नहीं है। इस कारण इसे समझना और समझाना आवश्यक हो गया है । मैं संक्षेप मे इसे समझाने का यत्न करता हूँ ।

Veerchhattisgarh

 

IAS अफसर तपस्या परिहार ने अपने विवाह के पूर्व ही अपने माता पिता को बताया था कि विवाह के समय मेरा कन्यादान न हो मैं कोई दान की वस्तु नहीं हूँ जो मेरा कन्यादान किया जाय।

वह बालिग है समझदार है उसने जो निर्णय किया उसके लिये सही हो सकता है। पर फिर भी यह विचारणीय विषय है कि क्या भारतीय विवाह पद्धति के नियमों को बदलने की आवश्यकता है ?

 

कन्यादान को ही समाप्त करने की आवश्यकता है ?  इन प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करने के पूर्व क्या यह समझना आवश्यक नहीं है कि भारतीय विवाह पद्धति क्या है और उसमे कन्यादान का क्या महत्त्व है ?

दुर्भाग्य से हमारे संस्कारों के बारे में ज्ञान के लिये हमारी शिक्षा मे कोई स्थान नहीं है। इस कारण इसे समझना और समझाना आवश्यक हो गया है । मैं संक्षेप मे इसे समझाने का यत्न करता हूँ ।

माता पिता अपनी संतान का पालन पोषण करता है उन्हे शिक्षित करने के लिये सभी प्रकार के यत्न करता है । उन्हे योग्य नागरिक बनाता है । इस कारण संतान का यह कर्तव्य बनता है कि उनके उत्तर काल मे उनकी सेवा सुश्रुषा करे । माता पिता का यह अधिकार बनता है । पहले संतान निर्भर होता है बाद मे माता पिता निर्भर होते हैं ।

इस प्रकार हर बालक के दो जीवन होते हैं । दूसरे जीवन को द्विज कहा जाता है, जब उसे अपने कर्तव्य निभाने होते हैं । लड़के का जब यज्ञोपवीत होता है तब वह द्विज बनता है तथा अपने शरीर पर संकल्पों की डोर बांधता है जिसे उसे आजीवन निभाना है ।

अब कन्याओं के लिये समझिये कि वे कब द्विज बनती हैं । बहुत ही महत्त्वपूर्ण विषय है जिसे जानना आवश्यक है । यह समय है उसके विवाह का । बहुत बड़ी घटना है यह । परिवार परिवर्तन होता है गोत्र परिवर्तन होता है कन्या का । जिन्होंने लालन पालन किया उससे उसे विदाई लेनी होती है । इसमे माता पिता का एक कठोर निर्णय होता है कि वे अपनी कन्या को अपनी सेवा से मुक्त करते हैं अपने प्रति कन्या के उत्तरदायित्व का समर्पण करते हैं, उसकी प्रतिबद्धता का हस्तांतरण करते हैं।

यह प्रतिबद्धता का हस्तांतरण ही कन्यादान कहलाता है । यह वस्तु विनिमय नहीं है, किंतु यह प्रतिबद्धता के समर्पण का नाम है । बहुत कठिन निर्णय है  जिसमे उसे तो अपने पिता के कर्तव्य तो निभाने हैं पर कन्या की सेवाओं का त्याग करना है । यह इतना कठोर है कि पिता कन्या के ससुराल पक्ष की और सेवाएं तो दूर की बात है,  उसके घर का पानी तक पीना नियम भंग मानता है। तीज त्यौहार पर बेटी को घर बुलाता है और उपहार के साथ विदा करता है इतना ही नहीं उसके ससुराल मे यदि कोई उत्सव होगा तो उनके सम्मान मे अपनी ओर से कुछ भेट अवश्य दे कर आएगा।

ये सब उसके कर्तव्य बने रहते हैं । बेटी के हक का कहीं हनन नहीं होता ऐसा होता है यह कन्यादान।

विवाह के समय अग्नि को साक्ष्य मानकर पिता कन्या दान करता है जिसका समर्थन भाई मामा आदि अलग अलग चार फिरों मे दुहराते हैं।

विवाह के समय कन्या पिता के अपने प्रति प्रतिबद्धता के समर्पण के बाद जब वर द्वारा प्रदत्त वस्त्र धारण करती है बस उसी समय से वह द्विज बन जाती है तथा अपनी नई प्रतिबद्धता को सात संकल्पों जो वह सप्तपदी मे लेती है द्वारा पूर्ण करती है। सप्तपदी मे सात संकल्प वर और सात संकल्प वधु एक दूसरे के प्रति प्रतिबद्धता का लेते हैं तब जाकर इस प्रतिबद्धता का हस्तांतरण पूर्ण माना जाता है। और विवाह सम्पन्न माना जाता है।

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *