आधी दुनिया का पूरा हिस्सा.. साँच कहै ता… / जयराम शुक्ल
हम अतीतजीवी हैं। वर्तमान के हर बदलाव को विद्रूप बताते हुए उस पर नाहक ही लट्ठ लेकर पिल पड़ते हैं। अक्सर सुनते हैं कि हमारा जमाना कितना अच्छा था। यहां तक कि लोग अँग्रजों और राजशाही के जमाने के गुन गाने लगते हैं। आज जो भोग रहे हैं जब यह इतिहास हो जाएगा तो यही प्रिय लगने लगेगा। परंपरा और प्रगतिशीलता के बीच यही द्वंद्व चलता रहता है। जबकि ठहरा हुआ कदम परंपरा और आगे बढने के लिया उठा हुआ कदम ही प्रगतिशीलता है। उठा हुआ कदम ही आगे बढाता है लेकिन उसे आगे बढने का बल उसी ठहरे हुए कदम से मिलता है। इसलिए समाज में प्रगतिशीलता और परंपरा दोनों जरूरी है।
अब आज के जमाने के शादी ब्याह को ही लें। 360 डिग्री का बदलाव आ गया। बीस पचीस साल में सारा समाज रूपांतरित हो गया। हमारे जमाने में ग्रामीण मध्यवर्ग में बालविवाह का चलन था। जिसकी ग्यारवीं पास शादी हुई वह सयानी शादी मानी जाती थी। मैं जिस स्कूल में पढ़ता था, आठवीं तक में सभी लड़कियों की शादी हो चुकी होती थी लड़कों का प्रतिशत पचास फीसद रहता था। माँ-बाप को इसकी फिकर नहीं रहती थी कि आगे इनका क्या होगा.? और वह इसलिए भी कि आमतौर पर शादी ब्याह के फैसले माँ-बाप नहीं, परिवार के सयाने और नात रिश्तेदार तय करते थे। संयुक्त परिवारों में तो माँ-बाप की स्थिति मूक दर्शक से ज्यादा कुछ नहीं रहती थी। शादीव्याह संयुक्त परिवार के सहकार हुआ करते थे। और यह सब पुरखों की परंपरा की दुहाई के नाम होता था। बालविवाह के सीधे परिणाम भी हमने देखें हैं। कई मेधावी बच्चे जिन्हें कलेक्टर होना चाहिए था, मास्टर बनकर ही रह गए।
संयुक्त परिवार जब टूटने लगे तो बड़ी बहस हुई कि अब समाज का क्या होगा। लेकिन समाज तो अपने हिसाब से आगे बढता है। परिवार छोटी छोटी इकाईयों में विघटित हो गए। एक ओर संयुक्त परिवार का सहकार घटा तो दूसरी ओर छोटे परिवारों की आर्थिक तरक्की ने रफ्तार पकड़ी। परिवार के भीतर ही आगे बढ़ने की स्पर्धा बढ़ी। अस्सी से नब्बे का दशक इसी संक्रमण काल से गुजरा। यह लड़कियों, महिलाओं के पुनर्जागरण काल था। एक वो दौर था जब घर की महिलाओं का दायरा चूल्हाचक्की तक सीमित था और लड़कियां के पास कंडा थापने और ससुराल जाने के पूर्व का प्रशिक्षण लेने के अलावा कोई दूसरा काम नहीं। वक्त ने अँगडाई ली आज के शादीब्याह के बरक्स हम देख सकते हैं कि आधी दुनिया तीस साल के भीतर कहाँ से चलकर कहाँ पहुंच गई।
तीस- चालीस साल पहले आज के बारातों के दृश्य की कल्पना तक नहीं की जा सकती। सामान्य से सामान्य परिवार की बारातों में आधे से ज्यादा महिलाएं होती हैं, साफा बाँधे डीजे की धुन पर नाचते हुए। इनमें दूल्हे की दादी भी नर्तक मंडली को लीड करते हुए मिले तो ताज्जुब मत मानिए। रूढियों, वर्जनाओं को तोड़कर आया ये बदलाव आधीदुनिया को बराबरी के पटल पर लाकर खड़ा कर दिया। इस प्रगतिशीलता का ताली बजाकर स्वागत होना चाहिए। जो लोग इस बदलाव को लेकर नाक भौं सिकोड़ते हैं उन्हें मैं वैसे ही मानता हूँ जैसे तांगे का रिटायर्ड घोड़ा अस्तबल के खूंटे में बधा अपने जमाने की जुगाली कर रहा हो।
कल तक जो लोग बेटी के ब्याह को लेकर परेशान रहा करते थे वे अब बेटे की शादी को लेकर चिंतातुर हैं। बेटा परिवार की नाक का सवाल व श्रेष्ठता की गारंटी नहीं रहा। एक मित्र पिछले दो साल से बेटे की शादी को लेकर परेशान हैं। वे अधिकारी हैं,शहर में पक्का मकान है,चढने के लिए गाड़ी है फिर भी सीजन पर सीजन बीतते जा रहे हैं शादी वाले आ ही नहीं रहे। बेटा पैतीस साल का हो चला।
पहले कभी बाप के रसूख के आधार पर निकम्मे बेटों की भी शादी हो जाया करती थी। गांवों में कजहा मवेशी बाँधने के खूँटे की गिनती से ही अंदाज लगा लेते थे कि यह कितना बड़ा काश्तकार है। अब स्थिति पलट गई। बाप बलट्टर हो या इलाकेदार, पहला और आखिरी सवाल होता है कि और तो सब ठीक है बताएं बेटा क्या करता है। बेटी का बाप घर की शान शौकत से प्रभावित होकर मन भी बनाया तो कोई गारंटी नहीं कि बेटी मान ही जाएगी। यह एक बड़ा बदलाव आया है। मध्यवर्ग की लड़कियों ने अब आँखें खोलकर अपना भविष्य चुनना शुरू किया हैं। शादीवब्याह के सीजन में प्रायः हर कोनों से ये खबरें अक्सर आने लगी हैं कि वधू ने एनवक्त पर वर को रिजेक्ट कर दिया। बेटियों की जासूस नजरें अब भविष्य में होने वाले पति के क्रियाकलापों, करतूतों पर होती है। यह जेंडर रेशियों के घटबढ़ का भी परिणाम है। जिन क्षेत्रों में ये फासला बढ़ा है वहां लड़कों की शादी में मुश्किलें आने लगी हैं।
देश के कई हिस्से तो ऐसे भी हैं कि लड़के वालों को रिश्ता लेकर जाना पड़ रहा है। देखते जाइए अब ये दायरा और बढ़ेगा। दहेज धीरे-धीरे अप्रसांगिक होता जाएगा। पिता के मन में ये भाव जाग्रत होने लगे कि आखिर घर में बेटी का भी हिस्सा है। यह मानकर अब लेनदेन होने लगा है। भविष्य में ये समझ और बढ़ेगी। जैसे पहले दूल्हों की घोड़ामंड़ी सजती थी,फिर बोली लगती थी वे दिन अब लद गए। मूँछों का ताव अब पगड़ी के सामने नहीं चलेगा। समाज रूढियों की बेड़ी तोड़कर परंपराओं की जमीन पर सिर्फ आकर खड़ा ही नहीं हुआ है, उसकी प्रगतिशीलता के कदम तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। इस बदलाव के स्वागत में सबको शामिल होना चाहिए।
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