सुरेंद्र किशोर : नेहरू,अखबार मालिक और एक मशहूर पत्रकार की राजनीतिक महत्वाकांक्षा

मशहूर पत्रकार और लेखक
दुर्गा दास (1900-1974)इस देश के बहुत बड़े पत्रकार थे।
वे हिदुस्तान टाइम्स के संपादक भी रहे।प्रेस क्लब आॅफ इंडिया के संस्थापक अध्यक्ष थे।
संविधान सभा का जब गठन हो रहा था तो उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री गोविन्द वल्लभ पंत ने संविधान सभा की सदस्यता के लिए दुर्गादास के नाम की सिफारिश की थी।
पर प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उनका नाम काट दिया।
क्योंकि दुर्गा दास,सरदार पटेल,गोविन्द वल्लभ पंत और मौलाना आजाद के करीबी माने जाते थे।
स्वाभाविक ही था,संविधान सभा का सदस्य नहीं बन पाने के बाद दुर्गा दास ने अपने लेखन में प्रधान मंत्री नेहरू की गलतियों को उजागर करना शुरू कर दिया।


सरकार है तो वह थोड़ी-बहुत गलतियां तो करेगी ही।प्रधान मंत्री के निजी सचिव एम.ओ.मथाई के अनुसार,एक बार प्रधान मंत्री नेहरू ने दुर्गादास को बुलाकर उन्हें बुरी तरह फटकारा।

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कहा कि तुम तो बहुत घटिया आदमी हो।
‘‘यू आर मीनेस्ट मैन आई हैव मेट एंड लोएस्ट फाॅर्म आॅफ ह्यूमन एक्जिटेंस।’’
कुछ अंतराल के बाद अंततः दुर्गादास नहीं ‘‘सुधरे’’ तो नेहरू के सचिव ने अखबार के मालिक घनश्याम दास बिड़ला से बात की । उसके बाद दुर्गादास की, संपादक पद से, छुट्टी कर दी गयी।
अखबार के मालिक घनश्याम दास जी (1894-1983)ने तब कहा था कि वैसे तो मैं अखबार के काम में हस्तक्षेप नहीं करता,किंतु मुझे भी लगता है कि दुर्गादास का लेखन पीत पत्रकारिता ही है।ं
उनकी बात सही थी।ं पटना के अंग्रेजी दैनिक अखबार ‘सर्चलाइट’और हिन्दी दैनिक प्रदीप के मालिक भी बिड़ला परिवार ही था।
साठ के दशक में बिहार में के.बी.सहाय की कांग्रेसी सरकार थी।
सर्चलाइट के संपादक टी.जे.एस.जार्ज को सहाय सरकार ने उनके सरकार विरोधी लेखन के कारण जेल भेजवा दिया।
उन पर राष्ट्रद्रोह का आरोप लगाकर हजारीबाग जेल भेजा गया था।
बिड़ला जी ने यदि हस्तक्षेप किया होता तो जार्ज संपादक पद से हटा दिए गए होते। जार्ज को जेल जाने की नौबत नहीं आती।पर मालिकान ने सबकुद जानते हुए भी हस्तक्षेप नहीं किया।
बाद में टी.जे.एस.जार्ज ने बिहार छोड़ दिया।उसके बाद वे कई प्रकाशनों में रहे।केंद्र सरकार ने उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया था।
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एक अनुभव मेरा भी
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एक सत्ता धारी नेता ने इन पंक्तियों के लेखक को एक अखबार की बड़ी नौकरी से निकलवा दिया।
उसका मुझे कोई गम न था और न है।
न ही उस नेता के प्रति मेरी कोई दुर्भावना है।
उन्होंने अपना काम किया और मैंने अपना।ऐसे काम में खतरे तो हैं हीं।
ध्यान रहे कि मैं नता जी के गलत कामों के खिलाफ लिखकर उन्हें एक तरह से चेता रहा था कि इसके बुरे परिणाम होंगे।
सत्ता तो नशा है।उसमें कोई अच्छी सलाह नहीं मानता।
पर बाद में जब उस नेता जी को अनेक तरह की परेशानियां झेलनी पड़ रही है तो पता चलता है कि वे मेरे बड़े प्रशंसक हो गये हैं।कहते हैं –सुरेंद्र संत है,फकीर है चैबीस कैरेट का सोना है।
आदि आदि।
मुझे भी उनकी बातों से संतोष मिलता है कि उन्होंने यह महसूस तो किया कि पत्रकार के रूप में मेरी कोई गलती नहीं थी।किसी को नौकरी से निकलवा देने का कितना खराब असर उसके और उसके परिवार पर पड़ता है,नेताजी समझते हैं।
पता नहीं ,दुर्गादास को मुझसे भी बड़ी नौकरी से निकलवाने वाले नेता जी की अंतरात्मा हमारे बिहारी नेता की तरह जीवन की संध्या बेला में जगी थी या नहीं !!
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(इस लेख के साथ मैं घनश्याम जी बिड़ला का वह पत्र यहां पेश कर रहा हूं जो उन्होंने अपने पुत्र को लिखा था।पठनीय है।)

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