देवांशु झा : कुम्भ.. समापन और संकेत, भारत के सांस्कृतिक पुनर्जागरण की पहली रश्मि..
कुम्भ समाप्त हो चुका है। प्रयाग के घाट अब लगभग खाली हो चुके हैं। जिस स्तर पर वहाॅं शिविरों का निर्माण हुआ था, उन्हें समेटते हुए शून्य करने में थोड़ा समय और लग जाएगा। प्रयाग के लोगों के लिए इस अपूर्व उत्सव का बीत जाना बीतने की साधारण क्रिया नहीं होगी। उसके साथ हर्ष, उल्लास, कल्लोल का सुदीर्घ कालखण्ड भी चला जाएगा।
डेढ़ मास तक सतत जागृत और जगमगाता हुआ प्रयाग धीरे-धीरे अपनी दिनचर्या में लौट जाएगा लेकिन कुम्भ के महोत्सव की विदाई सरल न होगी। कविवर निराला ने भिन्न संदर्भ में कहा था: बीता उत्सव ज्यों चिह्न म्लान, छाया श्लथ। बीत चुके उत्सव के म्लान चिह्न रह जाएंगे। श्लथ छा जाएगा। मधुशाला में बच्चन की पंक्तियां हैं–स्वागत के ही साथ विदा की होती देखी तैयारी! ठीक ही लिखा है। हर स्वागत में समापन और विदाई के बीज होते हैं। क्योंकि अंततः तो वियोग ही सत्य है।
सर्वे क्षयान्ता निचया: पतनान्ता: समुच्छ्रया:।
संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं च जीवितम्।। वाल्मीकि रामायण
(समस्त संग्रहों का अन्त नष्ट होना है। सभी लौकिक उन्नतियाॅं एक दिन ढलान पर उतर जाती हैं। सभी संयोगों का अंत वियोग है।)
प्रयाग में अथाह रिक्ति होगी। वह रिक्ति दिनों तक रेंगती रहेगी। जिस जनसमुद्र को देख-देखकर वे कुछ खिन्न भी होते रहे और कष्ट का रोना रोते रहे, वह जनसमुद्र उन्हें बहुत याद आएगा। शून्यता का भाव वहाॅं व्याप जाएगा। दिनों तक उसे भोगते हुए दैनंदिनी सामान्य हो सकेगी। उसमें लंबा समय लगने वाला है। मैंने देखा है, हमारे देश के अकादमिक, साहित्यिक और बौद्धिक इस धार्मिक जागरण से कुपित हैं। वे इस जागरण को अहिन्दू मानते हैं। उन्हें इस जनार्णव से बड़ी शिकायतें हैं। लेकिन मैं उन्हें आश्वस्त करना चाहता हूॅं कि अब वह थमने वाला नहीं है। उसे उत्तर से दक्षिण तक आप देखा करेंगे। विशेषकर उत्तर के उपेक्षित और मर्दित तीर्थों में अवश्य देखेंगे। वाराणसी, अयोध्या, प्रयाग और मथुरा-वृंदावन में यह समागम अब सूखने वाला नहीं है।
प्रयाग का कुम्भ एक कुंजी की तरह सामने आया है। आप कोसते रहिए लेकिन कुढ़ने के सिवा आप कुछ नहीं कर सकते। यह देश वापस लौट रहा। उस लौटने का आरम्भ तो अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के साथ ही हो गया था जो अब विराट हो चुका है। आप ईश्वर का धन्यवाद करिए कि इस अदृष्टपूर्व जनार्णव ने कुछ लीलने का प्रयास नहीं किया। वह आया उमड़ा और लौट गया। उसने तलवारें नहीं भांजीं। घृणा का कोई संदेश नहीं दिया। यही हिन्दू धर्म है। यही इस धर्म की सुन्दरता है। आप उसमें कुछ विद्रूप देख रहे या ज्ञान बांटने की कोशिश कर रहे तो आप करते रहिए। हाथ आपके कुछ नहीं आने वाला है। इस देश के अकादमिक कवि-लेखकों को हमेशा ऐसा हिन्दू अच्छा लगता रहा है जो मलिन हो। जिसकी उत्सवधर्मिता हमेशा मिलावट से चालित हो। उसकी चेतना का मानचित्र हमेशा ताजमहल को उभारता है। आज वह अयोध्या और प्रयाग को उभरते हुए देख रहा तो उसकी नींद उड़ गई है। वह विक्षिप्त होकर बड़बड़ा रहा है।
आने वाले हिन्दू उत्सव और त्योहार विराटतर होंगे। जिन मनीषियों ने हिन्दू पुनरुत्थान की भविष्यवाणी की थी, वे साधारण लोग नहीं थे। वह भविष्यवाणी तो सच होकर रहेगी। प्रयाग का कुम्भ एक प्रतीक बन कर हमारी स्मृति में रहेगा। समापन के बाद भी लोग बड़ी संख्या में संगम तट पर जाएंगे। उस जल में आनन्द-कंद को खोजेंगे। वह मेला वहाॅं नहीं होगा परन्तु उसकी अमोल स्मृतियां होंगी। आप लौटने का यह सुख कभी नहीं समझ पाएंगे। किन्तु आप देखेंगे। देखना ही होगा। प्रयाग एक प्रस्थान है। मैं कुछ विस्मय से इस विषय पर विचारता हूॅं। भारत के सांस्कृतिक पुनर्जागरण की पहली रश्मि उसी भूमि से फूटी है, जहाॅं कभी भगवान राम का जन्म हुआ था। भगवान राम हमारी सभ्यता-संस्कृति के प्रतीक पुरुष हैं। यह नया राम गमन पथ है जो अयोध्या से आरम्भ होकर पुनः प्रयाग तक आया है। इसकी सांकेतिकता तो अद्भुत ही है। उसे अनुभव करने वाले अनुभव कर रहे। आप विलाप कीजिए।
