देवांशु झा : कुम्भ की कहानियां
यह कहानी मेरे अनुभवों से नहीं निकली है। मैं प्रयाग में केवल छह घंटों के लिए था। बाईस घंटे यात्रा करते हुए कार में बीते। मैं मध्य रात्रि में पहुंचा। ब्रह्म मुहूर्त में स्नान कर वापस चल पड़ा। सुधीर भाई जैसे धर्मात्मा की कृपा से सब सम्भव हुआ। मैं अनभिज्ञ था। मैंने लिखा था कि दादी की कुम्भ स्नान की इच्छा अधूरी रह गई थी जबकि वे तीन कुम्भ में कल्पवास कर चुकी थीं। मेरे पिता की दो माताएं थीं। एक जन्मदात्री, दूसरी प्रेमदात्री। जन्मदात्री ने भी अनन्य प्रेम दिया था किन्तु विमाता का प्रेम उस समाज में अमोल, अदृष्टपूर्व था। कोई अनजान मनुष्य दोनों को देख लेता तो यही कहता कि बड़की माय( बड़ी मां) ही बाबूजी की जन्मदात्री माता हैं। कुम्भ में बड़की माय, मेरी दादी, बड़की माय के गर्भ से जन्मे उनके पुत्र और मेरे पिता के बड़े भैया समेत कुछ लोग कल्पवास के लिए प्रयाग गए थे। बाबूजी गांव में रह गए थे।
कुम्भ के अंतिम दिनों में बड़की माय मेले में हेरा गईं। मेले में गुम हो जाना उन दिनों आम बात थी। वे निरक्षर थीं। एक-दो दिन तक उन्हें ढूंढ़ा गया। वे नहीं मिलीं। पुत्र समेत पूरा जत्था गांव लौट आया। बड़की माय वहीं रह गईं। जत्थे के गांव लौट आने पर बाबूजी ने जब सुना कि बड़की माय गुम हो गईं तो वे स्तब्ध रह गए। उन्होंने भोजन का लगभग त्याग कर दिया। बहुत समझाने पर थोड़ा बहुत कंठ से उतार लिया करते। हर दिन गांव के पास वाले स्टेशन पर जाकर घंटों बैठे रहते। उनका मन कहता कि बड़की माय लौट आएंगी। प्रयाग से आने वाली ट्रेन चली जाती। यात्री लौट आते। बड़की माय नहीं आतीं। बाबूजी चुपचाप घर चले आते। छह दिनों तक यह क्रम चलता रहा। सातवें दिन वे स्टेशन पर खड़े थे। ट्रेन आकर रुकी और बड़की माय थरथराते कदमों से उतर गईं। मेरे पिता जार-जार रोते हुए उनसे लिपट गए। वह धन्या स्त्री रुद्ध कंठ से अपने पुत्र को अंक में भरे खड़ी रहीं। जैसे प्राण लौट आया हो। जैसे संसार का सारा सुख पा लिया हो।
बड़की माय छह दिनों तक उपवास पर रहीं। वह बाहर का कुछ नहीं खाती थीं। उनका शरीर सूख गया था। कोई जिजीविषा, इच्छाशक्ति उन्हें जीवित रखे रही। छह दिनों तक यहां-वहां भटकती हुई, आठ दस रेलों में चढ़ती उतरती हुई वे गांव पहुंच गईं। नेह का अटूट बन्धन उन्हें खींच लाया था। वे अपने उसी पुत्र के लिए चली आई थीं, जिसे उन्होंने अपनी कोख से नहीं जना था। गांव लौटने के कई वर्ष बाद तक वे जीवित रहीं। अपने सुख-दुख बाबूजी से कहतीं। मां कहती हैं कि उन्होंने अपने जीवन में उन जैसी दूसरी सरल स्त्री को नहीं देखा। किन्तु यह भी अवश्य कहती हैं कि उनके पति एक असाधारण मनुष्य थे। विमाता का पुत्र के लिए और पुत्र का विमाता के लिए वैसा प्रेम विरल होता है। मैंने बड़की माय को नहीं देखा। अपनी दादी को अवश्य देखा। पिता को भरपूर देखा। उनसे सीखा कि मां क्या होती है। यद्यपि मैं मां के लिए कुछ नहीं कर पाता। मैं हर दिन ईश्वर को प्रणाम करते हुए कहता हूॅं–कृतज्ञ हूॅं प्रभो! आप ने मुझ जैसे साधारण और दुर्गुणी मनुष्य को उनके पुत्र रूप में चुना।
