प्रसिद्ध पातकी : प्रयाग कुंभ.. सब कुछ लुटा के होश में आने की कला

आजकल जिसे देखो, प्रयागराज भाग रहा है। किसी को फोन करो तो उठा तो लेता है पर उठाते ही कहता है, ‘‘अभी थोड़ी देर में बात करता हूं, अभी तो लेटे हनुमान जी के दर्शन के लिए खड़े हुए हैं। मंदिर से बाहर निकल कर बात करते हैं।’’ और तो और कुछ पांखडी वामपंथी भी हैं, जो इतनी भीड़ भड़क्का में भी अपनी जान हथेली पर लेकर कुंभ जाने को तैयार हैं। और ऊपर से तुर्रा यह कि ‘‘कुंभ में तो जाऊंगा, पर गंगा स्नान नहीं करूंगा।’’

मुझे तो लगता है कि पुरुष सूक्त में भगवान का जो वर्णन है ‘सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्’ , इसे किसी को मूर्त स्वरूप में देखना हो तो वह कुंभ चला जाए। विशेषकर मौनी अमावस्या के समय। कोटि-कोटि नर-नारी बिना किसी बुलावे के, बस चले आ रहे हैं। हर कोई जल्द से जल्द बस संगम पहुंचना चाहता है। ‘बुड़की’ लगाना चाहता है। भीड़ ऐसी कि कंधे से कंधा छिले। जहां तक दृष्टि जाए बस मनुष्य ही मनुष्य।
विष्णु सहस्रनाम में भगवान के बारे में आये कुछ नाम तो लगता है कि वे कुछ और नहीं कुंभ का महात्म ही हैं। यथा :-
सद्गति: सत्कृति सत्ता सद्भूति सत्परायण:।
शूरसेना यदुश्रेष्ठ: सन्निवास: सुयामुन:।।
अब इसमें आये ‘‘सन्निवास’’ शब्द पर विचार करें तो बड़े मजेदार अर्थ खुलते हैं। श्रीहरि सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार जैसे नित्य मुक्त विभुतियों की ‘विश्रांतिभूमि’ हैं। अब ऐसी विभूतियां भी जब कुंभ में पधारती हैं तो त्रितापों से ग्रस्त आम जीव को ऐसी महान विभूतियों का ज्ञात-अज्ञात साथ मिलता है।

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त्रिवेणी में स्नान कर मुमुक्षु को जो गति मिलती है, वह ईश्वर शरणागति है और यह गति कोई और नहीं स्वयं वासुदेव ही हैं। इसीलिए वे ‘सद्गति’ हैं। प्रयागराज में गंगाजी की महिमा है। संगम की महिमा है। पर यमुना जी की महिमा भी है। माधव की भी महिमा है। द्वादश माधव की। अक्षय वट की।
ब्रजराज ने यमुना मैया के तट पर तमाम लीलाएं की। यही कारण है कि परम रामभक्त हनुमान त्रिवेणी के पास यमुना रज में ‘लोट’ लगाने के कारण” लेटे हुए हनुमान” कहलाये। इसी यमुना तट पर अक्षय वट है। ब्रज में कदंब का वट और प्रयाग में अक्षय वट। दोनों यमुना तट पर विराजित होने के कारण यमुना की महिमा बहुत बढ़ जाती है। और इस महिमा को बढ़ाने वाले नारायण ही ‘सुयामुन’ हैं। प्रयाग की यमुना मथुरा वाली यमुना नहीं रह जातीं।
चाहे माघ मेला हो या कुंभ, यहां माघ माह के दौरान गंगाजी के तट पर पूरे एक मास निवास करने वालों को ‘कल्पवासी’ कहते हैं। अब तो इतनी सर्दी नहीं पड़ती किंतु आज से तीस वर्ष पहले मैंने अपनी दादी को कल्पवास करते हुए देखा है। ऐसी विषम मौसमी परिस्थिति में गंगा तट पर निवास करने का मतलब एक एक पल कल्प के समान कठिन होना प्रतीत होता है। किंतु कल्प का यही अर्थ नहीं है। कल्प छह वेदांगों में से एक है। कल्प का एक अर्थ होता है कि यज्ञ की प्रक्रिया, उससे जुड़े कर्मकांड। कल्पवास में व्यक्ति एक तरह से यज्ञ प्रक्रिया में संलग्न होता है। यज्ञ का अर्थ है देना। सौंपना। अर्पित करना।
प्रयाग अनंत काल से यज्ञ भूमि है। यहां आस्तिक त्रिवेणी के तट पर द्वादश माधव और अक्षय वट को साक्षी मानकर भगवान का ‘सन्निवास’ करता है ताकि वह ‘सद्गति’ को प्राप्त कर सके। वह इस यज्ञ में सब कुछ लुटाकर सब कुछ पाना चाहता है।
एकादशी की राम राम

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