भूपेंद्र सिंह : … तो भीख इन्हें अधिकार लगने लगता है

मैंने एक पोस्ट में लिखा था कि यदि आप 6 लोगों के परिवार का पोषण करते हैं तो आप प्रयास करके कम से कम 500 डॉलर प्रतिमाह की कमाई करिए जबकि आप सफल व्यक्ति बनना चाहते हैं तो 10,000 डॉलर प्रतिमाह की सोच विकसित करिए।

कई मित्रों ने कहा कि यह असंभव है। असंभव कुछ भी नहीं है। लेकिन आप किसी भी क्षेत्र में सफल कहलाना चाहते हैं तो आपके अपने तहसील अथवा तालुके में टॉप 10 में तो आना ही पड़ेगा। आज हमारी अर्थ व्यवस्था जिस जगह पर खड़ी है वहाँ से यह बहुत तेज़ी से अगले दस साल में आगे बढ़ने वाली है। यह समझ लीजिए कि जब कहीं की आबादी में बिना युद्ध के भी स्थिरता दिखनी शुरू हो जाये तो समाज की अर्थ व्यवस्था बहुत तेज़ी से आगे बढ़ने वाली है। आप बुद्धि लगाइये, हमेशा कोई न कोई रास्ता खुला हुआ है, शायद आप उधर नहीं चल रहे हैं। और कुछ न समझ आए तो या तो एकदम से कन्वेंशनल बिज़नेस में जाइए या फिर नॉन कन्वेंशनल में, बीच के ट्रैफिक जैम में मत फसिये।

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कई लोगों ने लिखा कि जो 10,000$ महीने का कमाएगा क्या वह समाज पर खर्चा करेगा? यहीं सोच भिखमंगा वाली है। जिसके 10,000$ कमाया है, उसने उस कमाई के लिए समाज में कम से कम उससे 10 गुणे का योगदान किया है तभी उसे यह कमाई मिली है। उसके नीचे पचासों लोग रोजगार पा रहे हैं। पचासों लोगों को वह गरीबी मुक्त कर रहा है। और फिर जो कमा रहा है उस पर भी अच्छा खासा इनकम टैक्स दे रहा है और जो खर्च रहा है उस पर टैक्स दे रहा है। पैसा कमाना अपने आप समाज के लिए योगदान है। अलग से पैसा बाटना समाज को गर्त में ले जाना है। समाज का व्यक्ति के जीवन में केवल इतना रोल हो सकता है कि उसे किशोर होने तक उसकी मूलभूत आवश्यकताओं की चिंता कर ले। उसके ऊपर चिंता करना समाज के लिए हानिकारक है। समाज में नॉनप्रोडक्टिविटी को बढ़ावा देना है।

यह सामान्य नियम याद रखिए कि भीख देने से भीख मांगने वाले कम नहीं होते बल्कि बढ़ते जाते हैं और कुछ समय के बाद जब इनकी संख्या बढ़ जाती है तो भीख इन्हें अधिकार लगने लगता है। यही बात समाज के लिए भी लागू होती है। यदि कोई उद्योगपति रोजगार सृजन के बजाय पैसे बांट रहा है तो भले ही वह कितना भी अच्छा लगे लेकिन अंततः वह समाज का भला नहीं कर रहा। पैसा बाटने से समाज नहीं बढ़ता, बल्कि पैसा बनाने से समाज आगे बढ़ता है। जिसे आप वर्षों से मिट्टी समझ रहे हैं, उसे उद्योगपति लोहे का अयस्क समझता है और कोई उससे लोहा निकालता है, कोई उससे कार बनाता है।
यह मत समझिए कि धरती पर एक रोटी है, उसी में सबको बाँटना है। इस धरती पर उद्योगपति रोटी की संख्या बढ़ाने की ताक़त रखता है। इसे इस तरह से समझिए कि कल देश की आबादी 35 करोड़ थी तो लोग भूखे मरते थे और आज 145 करोड़ हो गई तो खाद्य सुरक्षा कानून लागू है और लोगों को खाद्यान्न बांटा जा रहा है।

इस धरती में बहुत क्षमता है, यह मानना कि सामान उतना ही है, उसी से छीनना है सबको अपना हक, मूर्खतापूर्ण कम्युनिस्ट सोच है। यह सोचना और प्रयास करना कि समाज में नेट उत्पादन बढ़ाकर समाज को समृद्ध किया जा सकता है, वास्तविक स्वतंत्र पूंजीवाद है। देश आज़ वास्तविकता के इसी धरातल पर खड़ा है अर्थात् ओपन इकॉनमी। आज़ के समय में कुछ भी असंभव नहीं है। मैं भी प्रयासपूर्वक सफल व्यक्ति बनना चाहता हूँ, आप भी प्रयास करें। लक्ष्य छोटा नहीं करना चाहिए।

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