प्रसिद्ध पातकी : विष्णु सहस्रनाम में कवि.. कवि शब्द ‘कु’ से बना है

‘‘वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान’’

भगवान के नाम सब एक से बढ़कर एक अनमोल हैं। भगवान का एक नाम कवि भी है। प्राय: कवि की तुलना ब्रह्मा से की जाती है क्योंकि ब्रह्मा जी की तरह कवि भी अपने कल्पनालोक की सृष्टि को शब्दों का तानाबाना पहनता है। इसलिए वह भी सृजनकार है। बाबा तुलसीदास ने अपनी जो रामचरित मानस लिखी, वह रामकथा के तीन वर्जन हैं, जो एकसाथ चलते हैं। यानी उन्होंने भगवान शिव, महर्षि याज्ञवल्क्य और भक्त शिरोमणि काकभुशुंडि के मानस जगत में रामकथा की जो छवियां हैं, उन्हें शब्दों में उतारा।

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विष्णु सहस्रनाम में आया है :-
सर्वगः सर्वविद् भानु:विष्वकसेनो जनार्दनः ।
वेदो वेदविद-अव्यंगो वेदांगो वेदवित् कविः ।।

संस्कृत के अनुसार कवि शब्द ‘कु’ से बना है जिसका अर्थ देखना है। कवि का अर्थ है जो परे देख सके अर्थात काल के पर्दे से परे जाकर देख सके, वह कवि है।
महर्षि अरविन्द आधुनिक भारत की न केवल एक आध्यात्मिक मनीषी थे, वरन् वह बहुत उच्च कोटि के अंग्रेजी कवि थे। उनकी कविता और उसके बारे में उनके विचारों को अंग्रेजी में ‘मॉर्डनिस्ट’ धारा के अग्रणी रचनाकार टी एस इलियट ने भी उद्धृत किया है। महर्षि अरविन्द कवि जो भी रचना सृजित करता है, उसमें कहीं न कही कुछ ऐसी बात होती है जो ‘डिवाइन’ की देन होती है। ऐसी पंक्ति वह कवि स्वयं लिख ही नहीं सकता। उनका कहना है कि वह विश्व के सभी प्रसिद्ध कवियों की रचनाओं को पढ़कर बता देंगे कि उनमें से कौन सी पंक्तियां ‘डिवाइन’ से आयी हैं।

तो महर्षि अरविन्द भी मानते हैं कि कवि के अंदर ‘ईश्वरीय’ अंश होते हैं।
अभी अभी गीता जयंती गुजरी है। इसी गीता में भगवान कृष्ण ने अपने को कवियों में ‘उशना’ बताया है।

वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनंजयः।
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः।।

माना जाता है कि असुर गुरु शुक्राचार्य का नाम ही उशना है। शुक्राचार्य को संजीवनी विद्या आती थी। देखा जाए तो कविता में भी संजीवनी होती है। इसे पढ़कर आपके मनोभाव देखते देखते कैसे बदल जाते थे, कोई नहीं बता सकता।
ज्यादा पुरानी बात नहीं है। भारतीय घरों में बच्चों को श्लोक, दोहे, पद आदि याद करवाये जाते थे। बच्चों को उनके अर्थ से कोई लेनादेना नहीं होता था। बस वे कविता की लय की अंगुली पकड़कर उसे कण्ठस्थ कर लेते थे। बाद में जब जीवन की धूप-छांव में अलग अलग अनुभवों से गुजरना पड़ता है तो बचपन में याद की गयी पंक्तियों के गूढ़ार्थ खुलने पर क्या आनंद और विस्मय होता है, यह वर्णनातीत है। किंतु आज कविता से जब लय और तुक की शर्तों को हटा दिया गया तो लोग केवल अपनी कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में छपा कर खुश हो लेते हैं। लोग इसे याद नहीं करते। महफिल या एकांत में उन्हें नहीं गुनगुनाते।

श्रीहरि कैसे कवि हैं, इसकी एक झलक श्रीमद्भगवद्गीता में देखने को मिलती है। वृंदावन वाले स्वामी अखण्डानन्द जी का एक वाक्य बड़ा अर्थपूर्ण है। उनके अनुसार जब बेकल होकर आत्मा परमात्मा को पुकारती है तो उसके कण्ठ से ‘गोपी गीत’ निकलता है। और जब परमात्मा प्रेम से समूची मनुजता को भावों में भरकर पुकारता है, तब श्रीमुख से गीता निकलती है। ईश्वर के मन में भी एक तरह का वियोग है, अपने अंश से बिछड़ने का वियोग। घर लौटते समय जैसे गाय अपने बछड़े को टेरती है, ठीक इसी प्रकार भगवान कृष्ण ने गीता में अर्जुन के माध्यम से पूरी मानवता को संबोधित किया है।

भगवान की यह टेर मात्र कविता के माध्यम से ही निकल सकती है। भगवान कवि है, इसलिए वे काल के परे जाकर देख सकते हैं। इसलिए भगवान का काव्य गीता आज भी कालातीत है। सर्वकालिक है। हर काल में प्रासंगिक। हर काल में अर्थवान।
एकादशी की राम राम

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