प्रसिद्ध पातकी : विष्णु सहस्रनाम.. ईश्वर का वृक्ष से विवाह
भगवान के बारे में कहा जाता है कि उनके भीतर जो कुछ हो चुका है, जो कुछ हो रहा है और जो कुछ होगा, वह सब विराजमान है। यह बात समझने में कुछ कठिन भी है और बहुत आसान भी। वेद में आता है… ‘‘पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम्।’’
अब जो हो चुका है और जो हो रहा है, यह बात तो समझ आती है। पर जो होने वाला है, उसे कैसे समझा जाए।
विष्णु सहस्रनाम में भी भवगान के ऐसे ही स्वरूप का नाम मिलता है :
भूतभव्यभवन्नाथः पवनः पावनोऽनलः।
कामहा कामकृत्कान्तः कामः कामप्रदः प्रभुः।।
भगवान के अंदर भविष्य की संभावनाएं कैसे छिपी हैं, इस बात पर विचार करना मुझे अच्छा लगता है। हमारा मानव समाज, हमारी सृष्टि भविष्य में कैसी होगी, इन प्रश्नों पर लोग तरह-तरह से विचार करते हैं। कोई कहता है कि स्वर्ग का राज्य धरती पर आएगा। कोई कहता है कि सतयुग आएगा। कोई कहता है, युग बदलेगा। आदि आदि।
पर हरि प्रबोधिनी एकादशी आते ही, मुझे भगवान के भावी स्वरूप पर विचार करने में मजा आने लगता है। आप भी जरा सोच कर देखिए, एक बड़ी मजेदार बात है। आज हमारा विज्ञान सूक्ष्मतर कोशिकाओं में घुसकर सूक्ष्म से सूक्ष्म अध्ययन करने के साथ ही चंद्रमा और मंगल तक अनंत अंतरिक्ष में लम्बी छलांगें लगा रहा है।
किंतु हमारे मनीषियों ने भारत में अनूठी परिकल्पना की है। यह कल्पना मुझे भविष्य की आश्चर्यजनक परिकल्पना लगती है कि ईश्वर वृक्ष से विवाह कर सकता है। सोचकर देखिए, जिसने भी यह विचार पहली बार किया होगा, वह कितना बड़ा भविष्य दृष्टा होगा। जब ईश्वर ने वृक्ष से विवाह किया तो क्या भविष्य में मनुष्य का वृक्ष से विवाह हो सकेगा? क्यों हमारा समाज ईश्वर से वृक्ष के विवाह को साल दर साल याद करता है। उत्सव मनाता है।
आपको मेरी यह ‘लाउड थिकिंग’कुछ बहकी-बहकी सी लग सकती है। वैसे इसमें कुछ भी बुरा नहीं है। किंतु यह नहीं भूलना चाहिए कि बीज में ही वृक्ष छिपा रहता है।
भगवान का एक नाम है ‘कामहा’ अर्थात सांसारिक कामनाओं का अंत करने वाले। शास्त्रों में कहा गया है, ‘‘न कामकलुषं चितं मम ते पादयो: स्थितम्’’अर्थात जिसका चित विषय वासनाओं की कामना से कलुषित नहीं हुआ वही श्रीहरि के चरणकमनों में अपने चित्त को स्थिर कर सकता है।
दिलचस्प बात है कि भगवान कहां तो सांसारिक कामनाओं का अंत करते हैं किंतु वे एक माँ की तरह अपने बच्चों की सच्ची कामनाओं को पूरा करने के लिए उनका सृजन भी कर देते हैं। इसीलिए वे ‘कामकृत’हैं।
भगवान का एक नाम है ‘कान्त’। वे लक्ष्मीकांत हैं। वे श्रीकांत हैं । कान्त शब्द के मूल में भी काम ही छिपा है। यह ऐसे रूप और गुण का सुकमार्य सौन्दर्य है, जो वर्णातीत है। मेरा मानना है कि कान्ति, कंत, आदि इसी शब्द से मिलते-जुलते हैं। ब्रजभाषा का का कंथा शब्द भी इसी के आसपास है।
दिलचस्प है कि भगवान स्वयं काम हैं और कामप्रद भी हैं यानी कामनाओं की पूर्ति करने वाले हैं। पर विचार करने वाली बात है कि लक्ष्मीकांत अपनी सहधर्मिणी चाहे माता लक्ष्मी हों, रुक्मिणी, सत्यभामा हों या जाम्बवंती हो, वे सब भगवान के बगल में बैठती हैं। पर तुलसी माता सबसे निराली हैं। हमारी दादी के ठेठ शब्दों में ‘इन मुण्डो (तुलसीजी) ने न जाने क्या तपस्या की जो ठाकुर जी के मूड पर बिराजती हैं।’
तो राजन् यह भगवान श्रीहरि जो तुलसी महारानी को अपने मस्तक पर धारण करते हैं, मेरा मानना है कि वह भविष्य की एक उत्तम परिकल्पना है। उस परिकल्पना को श्रीहरि ने अपने मस्तक पर धारण कर रखा है। देर-सवेर मनुष्य भी इसे श्रेष्ठता के साथ अपनाएगा। भविष्य के मनुष्य को वृक्ष को अपने जीवन का अभिन्न अंग मानते हुए उनके साथ प्रीतिकर जीवन व्यतीत करना होगा। उसके बिना काम नहीं चलेगा। तनिक भी नहीं चलेगा।
हरिप्रबोधिनी एकादशी की राम राम।।