डाॅ. चन्द्र प्रकाश सिंह : तक्षशिला-नालंदा.. विश्वविद्यालय जब ज्ञान की साधना के स्थान पर कहानी गढ़ने के अड्डे बन जाते हैं तब…

आजकल सोशल मीडिया पर एक संदेश प्रसारित किया जा रहा है कि नालंदा विश्वविद्यालय विद्वानों से भरा था फिर भी विदेशी आक्रांता ने उसे जलाकर राख कर दिया। अब इससे दो संदेश उत्पन्न होते हैं कि देश की सुरक्षा न तो विश्वविद्यालय से हो सकती है और न ही विद्वानों से और न ही राष्ट्र में इनकी प्रमुख भूमिका है।

ज्ञान की उपेक्षा करके राष्ट्र के उत्कर्ष की कल्पना करनेवाले ये कौन लोग हैं भगवान ही जानें। संभवतः उन्हें यह पता नहीं है कि भीड़ से राष्ट्र नहीं बनता, बल्कि भीड़ में राष्ट्रभाव का साक्षात्कार कराने का कार्य किसी न किसी विद्वान मनीषी द्वारा ही किया जाता है।

प्राचीन भारत में दो विश्वविद्यालय सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं- एक तक्षशिला और दूसरा नालंदा, लेकिन दोनों में कुछ मूलभूत अंतर था।

तक्षशिला ऐसा विश्वविद्यालय जहाँ ज्ञान की उपासना होती थी। वहाँ भारत ही नहीं पारस, अरब और यूनान तक के विद्यार्थी ज्ञानार्जन के लिए आते थे। तत्कालीन भारत का कोई भी राज्य ऐसा नहीं था जहाँ के विद्यार्थी वहाँ पढ़ने न आते हों। उस समय के राज्यों और गणराज्यों के अधिकांश उच्च पदधारक महामात्य, अमात्य या सेनापति तक्षशिला के पढ़े होते थे। सिकन्दर के आक्रमण के बाद चाणक्य ने जब राष्ट्र के राजकीय एकता की स्थापना का संकल्प लिया तब इस कार्य का सबसे बड़ा साधक तक्षशिला विश्वविद्यालय बना। विश्वविद्यालय के पढ़े पुरा छात्रों के माध्यम से ही सम्पूर्ण राष्ट्र की राजकीय एकता के संकल्प को सिद्ध कर सके।

दूसरा नालंदा विश्वविद्यालय है वहाँ भी सम्पूर्ण विश्व से विद्यार्थी पढ़ने आते थे। वहाँ भी विभिन्न विषयों के बड़े-बड़े विद्वान थे, लेकिन दोनों में एक अंतर था, तक्षशिला शुद्ध रूप से ज्ञान की साधना होती थी और नालंदा में ज्ञान की साधना के साथ कहानियाँ गढ़ने का कार्य होता था। अपनी ही प्राचीन भूमि में पल्लवित-पुष्पित वैदिक विचारों एवं प्राचीन मतों के विरुद्ध नैरेटिव गढ़े जाते थे।

तक्षशिला में शुद्ध ज्ञान आधारित शिक्षा (knowledge based education) थी, इसलिए वहाँ पाणिनि, कात्यायन, चरक, सुश्रुत, चाणक्य और वररुचि जैसे विद्वान हुए जो किसी दूसरे के खण्डन-मण्डन से अधिक शुद्ध ज्ञान की साधना में लगे रहे, इसलिए उनके अंदर राष्ट्रहित का भाव सर्वोपरि रहा, जिससे राष्ट्र पर आसन्न संकट को देखकर यह विश्वविद्यालय स्वतःस्फूर्त जागृत हो गया और राष्ट्र की एकता का सूत्रधार बन गया।

दूसरी तरफ नालंदा विश्वविद्यालय था, जहाँ ज्ञान की साधना तो होती थी, लेकिन इसका उपयोग कहानियाँ (narrative) सेट करने में किया जाता था। यहाँ के शिक्षा प्रणालि का आधार कथा आधारित (narrative based education) था। सत्य और शुद्ध ज्ञान पर कहानियों के आवरण चढ़ा दिए जाते थे। यह विश्वविद्यालय कहानियाँ गढ़ने में इतना खो गया कि उसे या उससे पढ़े लोगों को राष्ट्र एवं समाज की सुरक्षा की चिन्ता ही नहीं रही।

इसके नैरेटिव सेट करने का एक उदाहरण कुमारिल भट्ट के साथ घटी घटना से प्राप्त होता है।

एक दिन नलंदा विश्वविद्यालय के कुलपति आचार्य धर्मपाल नालान्दा विश्वविद्यालय के प्रांगण में अपने शिष्यों को पढ़ाते हुए वैदिक कर्मकाण्ड एवं दर्शन का घोर खण्डन कर रहे थे। कक्षा में बैठे हुए कुमारिल के नेत्रों से अश्रुपात होने लगा। बगल में बैठे विद्यार्थी ने जब यह देखा तब उसने आचार्य को बताया। आचार्य ने कुमारिल से पूछा ‘क्या मेरे वैदिक मत के खण्डन के कारण तुम्हारे नेत्रों से अश्रुपात हो रहा है?” कुमारिल ने कहा आचार्य! मेरे दुःख का कारण यह है कि आप वेदों के गूढ़ रहस्यों को जाने बिना ही उसकी मनमानी व्याख्या कर रहे हैं।” नालन्दा से कुमारिल को बाहर फेंक दिया गया। तक्षशिला का कुलपति राष्ट्र के लिए कार्य कर रहा था और नालंद का कुलपति कहानियाँ गढ़ने के लिए कार्य कर रहा था, यही दोनों में अंतर था।

विश्वविद्यालय जब ज्ञान की साधना के स्थान पर निहित स्वार्थों के कारण कहानी गढ़ने के अड्डे बन जाते हैं तब राष्ट्रीय हित ओझल हो जाता है और वे राष्ट्र की चेतना को जागृत करने में असफल हो जाते हैं।

साभार- डाॅ. चन्द्र प्रकाश सिंह

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