डाॅ. चन्द्र प्रकाश सिंह : व्यवस्थाएं आपसी विश्वास से चलती हैं
यदि विश्वास समाप्त हो गया तो दुनिया की कोई भी व्यवस्था टिक नहीं सकती, यहाँ तक कि व्यक्ति स्वयं भी व्यवस्थित नहीं रह सकता।
जीवन में व्यवस्थित होने के लिए पहले स्वयं पर विश्वास होना चाहिए। व्यक्ति का विश्वास ही उसके जीवन का आधार बनता है। उसका जैसा और जितना दृढ़ विश्वास होता है उसका व्यक्तित्व वैसा ही बनता है। जिसका स्वयं पर विश्वास नहीं होता उसका व्यक्तित्व भी अविश्वसनीय होता है। वह कब, क्या और कैसे करेगा इसका कोई आधार नहीं होता और जब व्यक्ति स्वयं पर पूरी तरह विश्वासहीन हो जाता है तब विक्षिप्त हो जाता है।
इसी प्रकार सामाजिक व्यवस्थाएं भी विश्वास के आधार पर चलती हैं। जब एक मनुष्य का दूसरे के साथ व्यवहार होता है तब उसकी नियामक धुरी विश्वास ही होता है। चाहे एक दूसरे के साथ सम्बंधों की बात हो या लोक व्यवहार की पारस्परिक विश्वास ही उसके स्वरूप के निर्णायक होते हैं।
परिवार से लेकर राज्य तक सभी व्यवस्थाओं का आधार विश्वास है। विश्वास दृढ़ है तो व्यवस्था शक्तिशाली है और विश्वास कमजोर है तो व्यवस्था कमजोर ही नहीं हो जाती, बल्कि छिन्न-भिन्न हो जाती है।
इस विश्वास का आधार धर्म है। धर्म का अर्थ यह नहीं है कि आप पूजा कैसे करते हैं, बल्कि धर्म का अर्थ यह है कि आप दूसरों के साथ ही नहीं स्वयं अपने साथ भी कैसा व्यवहार करते हैं। हमें जब और जितना यह विश्वास होता है कि सामने वाला हमारे साथ बिना राग-द्वेष, लोभ-मोह और काम-क्रोध के व्यवहार कर रहा है उतना ही हम उसके साथ सहज अनुभव करते हैं और जितना ही इसके उल्टा होता है उतना ही हम उसके साथ असहज होते जाते हैं और एक दिन वह व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाती है।
व्यवस्थाएं किसी किताब या संविधान से नहीं चलती हैं, व्यवस्थाएं आपसी विश्वास से चलती हैं। धर्मशास्त्रों में शक्ति को श्रद्धा विश्वास रूपिणी कहा गया है। यह वही शक्ति है जो श्रद्धा और विश्वास के रूप में प्रकट होकर किसी भी व्यक्ति एवं व्यवस्था को शक्तिशाली बना देती है, लेकिन इसके लिए साधना करनी पड़ती है।
साभार- डाॅ. चन्द्र प्रकाश सिंह