डाॅ. चन्द्र प्रकाश सिंह : क्या यह चित्र भक्ति और आस्था का प्रमाण है ?
क्या यह चित्र भक्ति और आस्था का प्रमाण है? सामने कूड़े-कचरे से पटी हुई अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहीं यमुना हैं और तट पर अपनी भक्ति से पुण्य अर्जित कर रहा भक्त है। भक्त को पुण्य अर्जित करना है और यमुना को अपने अस्तित्व से लड़ना है। शायद यमुना के अस्तित्व से भक्त को कोई लेना-देना नहीं है, इसलिए यमुना रहें या न रहें लेकिन आरती उतारना उसका धर्म है।
इस दृश्य को देखकर एक घटना याद आ गई। अभी कुछ दिनों पूर्व समाचार पत्र में छपा था कि एक व्यक्ति बूढ़ी माँ के मरने के पश्चात सम्पत्ति अर्जित करने के लिए उसका अंगूठा लगा रहा था। ठीक यही हाल आज समाज की आस्था का है। जल के अभाव और प्रदूषण से अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहीं गंगा-यमुना बचें या न बचें, लेकिन उनसे भरपूर पुण्य अर्जित कर लेना ही धर्म है। यदि उनका प्रवाह नहीं रहेगा तब भी पुण्य के लिए उनकी रेती में खड़ा होकर आरती की जा सकती है, लेकिन महत्वपूर्ण गंगा-यमुना का होना नहीं है, महत्वपूर्ण तो उनकी आरती से होनेवाला पुण्य है। क्या यही धर्म का स्वरूप है?
यह कम से कम वैदिक धर्म या सनातन परम्परा का चिन्तन तो नहीं हो सकता। नदियों के लौकिक महत्व को समझा गया इसलिए उन्हें माँ माना गया न कि उनसे पारलौकिक पुण्य अर्जित करने के लिए। आरती करो, पूजा करो, लेकिन किसलिए, क्योंकि इससे पुण्य मिलेगा? पुण्य स्वार्थ के लिए आरती-पूजा में नहीं बल्कि दृष्टि और भाव की व्यापकता में है। पुण्य सृष्टि के संतुलन, सामंजस्य और सहअस्तित्व में है। जहाँ प्रकृति के किसी घटक के अस्तित्व का संकट है वहाँ धर्म नहीं है।
साभार – डाॅ. चन्द्र प्रकाश सिंह