प्रसिद्ध पातकी : विष्णु सहस्रनाम, गीता और ज्योतिष में क्रोध
अप्रैल का माह शुरू हो गया है। यानी मौसम और मन-मिजाज में ताप की तीव्रता और प्रखरता बढ़ने का काल। प्रसिद्ध अंग्रेजी कवि टी.एस. इलियट की विख्यात पंक्ति है, ‘April is the cruellest month’. अब गर्मी बढ़ेगी तो खीज, झुंझलाहट और क्रोध भी बढ़ेगा। बड़ी दिलचस्प बात है कि विष्णु सहस्रनाम में भगवान के जो नाम मिलते हैं उसमें क्रोध को समाप्त करने वाला एक नाम भी है और एक अन्य नाम है क्रोध करने वाला।
इष्टोऽविशिष्ठः शिष्टेषः शिखाण्डी नहुषो वृषः।
क्रोधहा क्रोधकृत्कर्ता विश्वबाहुर्महिधरः।।
यह बड़ी उलझाने वाली बात है कि भगवान क्रोध का अंत करने वाले भी हैं और क्रोध करने वाले भी। बात तब और उलझती है जब हम भगवान वासुदेव की वाणी पर विचार करते हैं। उन्होंने गीता में क्रोध को ‘नरक का द्वार’ बताया है और इसे त्याग देने को कहा है क्योंकि यह आत्मा को अधोगति की ओर ले जाता है।
अब प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्रोध आखिर आता क्यों है? मैंने एक बार यह प्रश्न एक महात्मा से किया था। उन्होंने कहा कि अभी तो इसका ‘शार्ट आंसर’ दे रहा हूं, बाद में बड़ा उत्तर दूंगा। उन्होंने कहा कि क्रोध अहंकार पर चोट लगने से आता है। व्यक्ति की बहुत सारी मान्यताएं और विचार भी उसके अहंकार का विस्तार होती हैं और इन पर ठेस लगने से भी क्रोध आना स्वाभाविक है। भगवान विष्णु ‘‘क्रोधहा’’ हैं। वह क्रोध करने के बावजूद उसे तत्क्षण छोड़ने का सामर्थ्य रखते हैं। शास्त्रज्ञों ने क्रोधहा के उदाहरण के तौर पर भगवान परशुराम का उदाहरण दिया है। वे साक्षात् अग्निदेव होने के बावजूद बाद में अपने क्रोध को नियंत्रण करने लगे। राम विवाह इसका सर्वविदित उदाहरण है।
भीष्म दादा ने भगवान को ‘‘क्रोधहा’’ बताने के ठीक बाद उन्हें ‘क्रोधकृत्’ भी बतला डाला। अब इन दो विरोधाभासी बातों के बीच भला कैसे सामंजस्य बैठाया जाए? इसका उत्तर आदरणीय रामकिंकर जी ने बहुत सटीक ढंग से दिया है। उनकी इस बात को यदि मन में बैठा लिया जाए तो क्रोध से होने वाले नुकसान को काफी हद तक समाप्त किया जा सकता है। उनका कहना था कि क्रोध जब किसी बीत चुकी या घट चुकी घटना या बात पर आये तो समझ लो कि यह क्रोध हानिकारक है। नीचे की गति में पहुँचाने वाला है। और यही क्रोध किसी भविष्य की घटना के लिए किया जाए तो ऐसा क्रोध हमेशा कल्याणकर होता है। यदि गुरु अपने शिष्य पर क्रोधित नहीं होगा तो उसका कल्याण ही नहीं हो सकता। इसलिए क्रोध तो करना है किंतु किसी बीती हुई बात पर नहीं। यह बहुत ही उलझा हुआ विषय है पर रामकिंकर जी वाले सूत्र को यदि व्यवहार में उतारने का गिलहरी भर भी प्रयास हो तो काफी समस्याओं से समय रहते बचा जा सकता है।
बार-बार क्रोध आना और क्रोध में ‘अग्निशर्मा’ बन जाना भी आपके पूर्व जन्मों के कर्मों का फल है। ज्योतिष के षड्वर्गों में एक कुंडली होती है द्रेष्काण कुंडली। इसमें हर भाव को तीन भागों में बांटा जाता है। यदि लग्न सहित कोई भी भाव 0 से लेकर 10 डिग्री तक हैं तो वह पहला द्रेष्काण होगा। इसी प्रकार 10 से 20 डिग्री तक दूसरा द्रेष्काण और 20 से 30 डिग्री तक तीसरा एवं अंतिम द्रेष्णकाण। इसमें पहले द्रेष्काण को ‘नारद’, दूसरे को ‘अगस्त्य’ और तीसरे द्रेष्णकाण को ‘दुर्वासा’ की संज्ञा दी गयी है। जिस मनुष्य के लग्न, लग्नेश, चंद्रमा और सूर्य किसी राशि के 20 से 30 डिग्री के बीच होंगे, वे दुर्वासा द्रेष्काण में होंगे। अब उनका स्वभाव कैसा होगा, यह बताना जरूरी नहीं है। अब आप देख लीजिए कि इन चारों में से आपके कितनी चीजें दुर्वासा द्रेष्काण में हैं, उतनी ही मात्रा में आपके भीतर क्रोध होगा। इस क्रोध को रामकिंकर जी की युक्ति से ‘क्रोधहा’’ बनाना सीखिए।
एकादशी की राम राम