प्रसिद्ध पातकी : विष्णु सहस्रनाम में “सुव्रत” नाम की व्याख्या
आज से करीब दस बरस पहले स्वामी गिरीशानंद जी के साथ सत्संग लाभ का सौभाग्य बना. आप वृंदावन वाले स्वामी अखंडानंद महाराज जी के योग्य शिष्यों में से एक हैं. उन्होंने एक बड़ी अच्छी बात बताई. बोले एक महात्मा जी थे. कारसेवा संकल्प को उन्होंने निजी व्रत मान अपना तन-मन-धन सब झोंक दिया. वे खूब बीमार रहते थे पर राममंदिर कारसेवा के दौरान उन्हें व्याधि ने परेशान नहीं किया. ये दीगर बात है कि कारसेवा संपन्न होने के बाद उन्होंने ऐसी खटिया पकड़ी कि फिर उठ ही न पाये. यह है आपके सुव्रत का फल.
विष्णु सहस्त्रनाम में भगवान का एक प्यारा नाम आता है, “सुव्रत”.
सुव्रतः सुमुखः सूक्ष्मः सुघोषः सुखदः सुहृत्।
मनोहरो जितक्रोधो वीरबाहुर्विदारणः॥४९॥
अब यह प्रश्न उठता है कि क्या भगवान कोई व्रत रखते थे. मैंने भगवान के व्रत रखने का कोई प्रसंग पढ़ा हो, ऐसा याद नहीं पड़ता. फिर भगवान का व्रत भला क्या है? विद्वानों को पढ़ा तो पता चला कि भगवान को स्वयं अपने नहीं वरन् पर यानी दूसरों के कल्याण के उद्देश्य से व्रत रखते हैं। रघुनाथ जी यह व्रत तो मानो भक्तों का लाइफ लॉग पासपोर्ट है…
‘‘सुकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्व भूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम ।।’’
अर्थात जो मेरी शरण में आकर एक बार भी ऐसा कह देता हूं कि मैं आपका हूँ, उसे मैं सब प्राणियों से अभय कर देता हूं, यह मेरा व्रत है।
भगवान राघवेन्द्र का यह व्रत मात्र रामावतार में रहा हो, ऐसा नहीं हे। भगवान के ऐसे व्रत हैं जो सतत चलते रहते हैं. अवतार दर अवतार. वे नहीं बदलते. यह व्रत प्राणी और सृष्टि, दोनों के कल्याण के लिए हैं.
भगवान का एक सर्वविदित व्रत है, साधु जनों की रक्षा करना, उद्धार करना, कल्याण करना और दुष्टों का विनाश करना. यह व्रत कालाधीन ना होकर कालातीत है. इसी लिए यह सुव्रत है. अब यह भक्त ही हो जो सुव्रत पर भी प्रश्न उठा देता.
इसमें एक पंक्ति आती है जिसमें बाबा सूरदास ब्रजवासी के ठेठ अंदाज में प्रभु से प्रश्न करते हैं…” अजामील गीध , व्याध, इनमें कहो कौन साध?”यानी प्रभु आप तो कहते हैं कि आप सिर्फ़ साधु जनों का कल्याण करते हैं. पर जरा यह बताइये कि अजामिल, गीध जाति में उत्पन्न जटायु और जरा व्याघ्र कब से साधु हो गये? आपने इनका क्या परित्राण किया?
भक्त कवि ने ध्यान दिलाया है कि प्रभु का व्रत जोभी हो पर वे अपनी आदत से बच नहीं सकते. जीव पर कृपा करना उनकी आदत है. इसमें वे साधु और दुष्ट का भेद नहीं करते. तो फिर प्रश्न उठता है कि तो फिर सुव्रत का क्या? भगवान के व्रत इस सृष्टि की व्यवस्था को चलाए रखने के लिए हैं. न्याय करने के लिए हैं. एकादशी, प्रदेश, पूर्णिमा, चौथ आदि का व्रत अवश्य करिए. पर जीवन में परोपकार के कुछ काम व्रत की भावना से करिए. यह भी सुव्रत का ही स्वरूप हैं क्योंकि भगवान नारायण को परोपकार बड़ा प्रिय है.
एकादशी की राम राम
