विद्यासागर वर्मा : ईंश्वर प्रदत्त वेद स्वत: प्रमाण

वेदों के यथार्थ स्वरूप को जानने के लिए निम्न पहलुओं को ध्यान में रखना आवश्यक है , अन्यथा अर्थ का अनर्थ हो जाता है ; वेदों का उज्जवल स्वरूप धूमिल हो जाता है और लोगों में इन के प्रति अनास्था उत्पन्न हो जाती है।
क) ” वेदोsखिलो धर्ममूलम् ” ( मनुस्मृति 2.6 )
 अर्थात् वेद समग्र धर्म का आदि स्रोत है। इस में किसी प्रकार के अनैतिक, अमानवीय व्यवहार का विधान व अनुमोदन सम्भव नहीं जैसे कि पशु बलि। यजुर्वेद में यज्ञों का विस्तृत विधान है। इसके पहले ही मंत्र में प्रार्थना है : ” यजमानस्य पशून् पाहि।” ( यजुर्वेद 1.1) अर्थात् यज्ञ कर्ता के पशुओं की रक्षा करो।
यह कैसे सम्भव है कि यजमान जिसके पशुओं की रक्षा के लिए यज्ञ में प्रार्थना की गई है, वह यज्ञ में पशुओं की बलि दे और बाद में प्रसाद रूप में उसे खाए ! महाभारत (शांति पर्व ) में पशु बलि का खण्डन करते हुए सटीक प्रश्न किया गया है :
” यूपं छित्वा पशून् हत्वा , कृत्वा रुधिरकर्दमम्।
यद्येवं गम्यते स्वर्गं , नरकं केन गम्यते ।।”
पशुओं को मार कर , उनका ख़ून बहा कर यदि स्वर्ग जा सकते हैं, तो नरक में जाने का क्या मार्ग है ?
ख) ” बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे। ” ( वैशेषिक दर्शन 6.1.1)
अर्थात् वेद में सभी वाक्य ( Statements) बुद्धिपूर्वक (Rational) हैं। इसमें कोई मंत्र तर्कहीन, विज्ञान विरुद्ध ( Unscientific) नहीं है। वेदों में विज्ञान की सभी शाखाओं– भौतिक विज्ञान, नक्षत्र विज्ञान, गणित, चिकित्सा आदि का विज्ञान सम्मत वर्णन है।
केवल वाक्य ही नहीं, वेद का प्रत्येक शब्द सारगर्भित है।‌‌ उदाहरणार्थ, भूगोल अर्थात्‌ पृथ्वी गोल है, चपटी नहीं है। इस सम्बन्ध में यजुर्वेद (3.6) का मंत्र है :
” आयं गौ: पृश्निरक्रमीदसदन् मातरं पुर:।
पितर च प्रयन्त्स्व: ।।”
अर्थात् यह पृथ्वी अपनी माता (जल) को लिए हुए, अपनी परिधि में , अन्तरिक्ष में अपने पिता सूर्य की परिक्रमा करती है।‌‌ तैत्तिरीय उपनिषद् (2.1) का कथन है: ” अद्भ्य: पृथिवी ” अर्थात् पृथ्वी जल से पैदा हुई है, इसलिए जल पृथ्वी की माता है।
 ऐतरेय ब्राह्मण (14.6) का भी उद्घोष है :
 ” स वा एष न कदाचनास्तमेति नोदेति “
यह (सूर्य) न तो कभी अस्त होता है, न कभी उदय होता है।
इसी प्रकार आकाश के लिए एक-अक्षर शब्द ( One-letter word) है ‘ ख ‘। अतः ‘ खगोल ‘ का अर्थ है आकाश गोल है। विज्ञान भी कहता है Space is curved. ( खग= पक्षी; ख=आकाश, ग = गमन; जो आकाश में गति करता है)।
इसलिए वेदों में अनर्थक/ अनर्गल बातों की कल्पना मूर्खता है। वेदों को गडरियों के गीत कहना, उसके गहन अर्थ को न समझ पाने का परिचायक है।
ग) ” तद्वचनाद्  आम्नायस्य प्रामाण्यम् ” ( वैशेषिक दर्शन 1.1.3)
उसका /ईश्वर का वचन होने से वेद की प्रामाणिकता है। यह सर्वमान्य है कि ईश्वरीय ज्ञान में कोई त्रटि नहीं हो सकती क्योंकि ईश्वर सर्वज्ञ हैं। इसलिए ईंश्वर प्रदत्त वेद स्वत: प्रमाण है; इसकी सत्यता के लिए किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। जिस प्रकार सूर्य व दीपक स्वयं प्रकाशवान होने से अपनी सत्ता के स्वयं प्रमाण हैं तथा अन्य पदार्थों को प्रकाशित कर के, उनकी सत्ता को भी प्रमाणित करते हैं, इसी प्रकार वेद स्वत: प्रमाण हैं, अपने प्रमाण आप ही हैं।
भारतीय परम्परा में ईश्वर प्रदत्त वेद ” स्वत: प्रमाण ” ( Self – contained Proof/ Evidence) तथा मनुष्यकृत ग्रंथ — चार उपवेद, ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक, उपनिषद्, छह वेदांग, छह उपांग/ दर्शन शास्त्र आदि अन्य धर्म ग्रंथ ” परत: प्रमाण ” (  Subsidiary Proof)  माने जाते हैं। उनके प्रमाण इसलिए मान्य हैं क्योंकि वे वेदानुकूल हैं। यदि वेद तथा किसी ग्रंथ में किसी विषय पर विरोध हो, वेद में कथित बात सत्य मानी जाती है क्योंकि वह ईश्वरोंक्त है।
वेद को श्रुति भी कहा जाता है। अपने सिद्धान्तों व वचनों को सत्य घोषित करने के लिए आचार्यगण / व्याख्याकार वेद/ श्रुति को उद्धृत करते हैं।  इसलिए आदि शंकराचार्य के भाष्य/ व्याख्याओं में ” इति श्रुते: ” का उल्लेख होता है ताकि उनके कथन पर कोई संदेह न करें।
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The Vedic Trinity
Preface
Veda Revelation of God (Part 5)
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शुभकामनाएं
विद्यासागर वर्मा
पूर्व राजदूत
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