योगी अनुराग : श्रीराम मंदिर के विश्वकर्मा चंद्रकांत सोमपुरा

सनातन सभ्यता समग्र संसार में सर्वाधिक सदाशय है। श्रेयदान के प्रसंग में हिंदुओं-सी उदार जाति इस संसार में अन्य कोई नहीं। किंतु फिर भी, जैसा स्नेह श्री अरुण योगिराज पर बरस रहा है, उसका शतांश भी श्रीराममंदिर का वास्तुसम्मत रेखाचित्र (आर्किटेक्चर) बनाने वाले श्री चंद्रकांत सोमपुरा को नहीं मिल सका है।

जिस प्रकार मिट्टी से बनी देह में जब एक शाश्वत आत्मा व्याप्त रहती है, तो जीवन का संचार होता है। ठीक वैसे ही, जब पाषाण से निर्मित एक पवित्र भवन में जब एक विग्रह विराजता है, तो उसे मंदिर की संज्ञा दी जाती है।

श्रीराममंदिर के विषय में श्री अरुण योगिराज और श्री चंद्रकांत सोमपुरा वस्तुतः एक ही सिक्के से दो पहलू हैं। एक ने मूरत को पाया है, तो दूजे ने भवन को। दोनों का परस्पर साम्य इतना विशिष्ट है कि मानो वे दोनों एक ही चेतना के दो अवयव हैं, एक ही प्राणशक्ति के दो छोर, एक ही आकांक्षा के दो मनोरथ।

यद्यपि, तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो देह नश्वर है और आत्मा शाश्वत, भवन त्रिकालबाधित है और विग्रह त्रिकालाबाधित। तथापि दोनों का पुरुषार्थ संयुक्त हुआ, तो श्रीराममंदिर की पूर्णकाम प्रतिष्ठा हुई है।

श्रीराममंदिर के रेखाचित्र जैसे अन्योत्तर प्रकल्प हेतु श्री चंद्रकांत सोमपुरा का चुनाव स्वयं श्री अशोक सिंघल जी ने किया था। सन् १९८९-९० की बात है, जब श्री अशोक सिंघल की नज़र में श्री चंद्रकांत आये और श्रीराममंदिर का रेखाचित्र बनाने का ऐतिहासिक कार्य उन्हें सौंपा गया।

उन्हें इस लब्ध-प्रतिष्ठित कार्य के लिए चुना गया, इसका प्रमुख कारण थी, उनकी सदियों पुरानी शिलावत-कुल-परंपरा, जिसका कि कार्य ही शिलाओं को भवनों (विशेषतः मंदिरों) में परिवर्धित करने का रहा है। जयपुर का ऐतिहासिक भवन “हवामहल” उनके कौशल की गाथा अनवरत कह रहा है।

कालांतर में, शिलावतों का पुराना उपाख्य “शिलावत” से “सिलौत” होकर “सलौत” और फिर “सलत” में परिवर्तित हो गया। आज भी, समग्र उत्तरभारत में प्रसारित इनके सलत-कुल को नागरशैली का विशेषज्ञ माना जाता है।

न केवल भारत में, अपितु विदेशों में भी सलत-समुदाय के लोगों द्वारा बने मंदिरों की धूम है। स्वयं श्री चंद्रकांत सोमपुरा ने “अक्षरधाम” नाम तले बने देश-विदेश के सभी मंदिरों सहित सौ से अधिक मंदिरों का वास्तुसम्मत रेखाचित्र बनाया है।

जैसा कि “शिलावत” नाम से स्पष्ट है, ये परंपरा मूलरूप से राजस्थान में प्रकटी होगी। किंतु किन्हीं अज्ञात कारणों से शिलावतों का ये जत्था प्रभासतीर्थ जा पहुँचा।

प्रभासतीर्थ का अपनी पौराणिक महत्ता है। प्रजापति दक्ष से शापित हुए चंद्रदेव ने यहीं प्रभासतीर्थ में ही भगवान शंकर की तपस्या की थी, जिससे प्रसन्न होकर भगवान ने चन्द्रदेव को अपने मस्तक पर स्थापित कर लिया और उन्हें क्षयरोग से मुक्ति दी। जिस शिवलिंग को चन्द्रदेव ने पूजा, कालांतर में वही शिवलिंग भगवान सोमनाथ के नाम से जगत्प्रसिद्ध हुआ।

ठीक इसी भूमि पर पहुँचे शिलावतों ने नया नगर “सोमपुर” बसाया और “सोमपुरा” उपाख्य धारण किया। हालाँकि, मुग़लिया कालखंड में “सलत” समुदाय पर भी इस्लाम स्वीकारने का भारी दबाव आया, किंतु उन्होंने बंजारा शैली में तितर-बितर होकर लघु समूहों में रहना चुना, बजाय कि इस्लाम स्वीकारने के। और जिन लघु समूहों ने इस्लाम स्वीकारा, वे “सलात” नामतले अपने पारंपरिक संगतराशी के हुनर को मुग़लिया भवनों के लिए प्रयोग करते रहे और बीते सौ-दो सौ वर्षों में सलातों की बहुत-सी घर-वापसी हुई हैं।

भगवान शिव ने इनकी तपश्चर्या का फल कुछ इस प्रकार दिया कि जब भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् श्रीसोमनाथमंदिर के जीर्णोद्धार का अवसर आया, तो नागर शैली में बने उस महामेरु प्रासाद का निर्माणकार्य सोमपुराओं की तेरहवीं पीढ़ी के वंशज पद्मश्री प्रभाशंकर औघड़भाई सोमपुरा को मिला।

वस्तुत: श्री चंद्रकांत सोमपुरा उन्हीं के यशस्वी पौत्र हैं, सोमपुराओं की पंद्रहवीं पीढ़ी के प्रतिनिधि। मानो समग्र वंश-परंपरा को भगवान विश्वकर्मा का आशीष इसी हेतु से मिला है, कि वे उन तमाम कलंकों को मिटाकर यशस्वी प्रासादों का निर्माण करेंगे, जिन्हें अक्रान्ताओं ने नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था।

भगवान श्रीरामचंद्र से कामना है कि शिलावत-सोमपुराओं की छैनियों में इसी प्रकार दिव्यता का समावेश करते रहें और भारतभूमि की नष्ट विरासतों की भव्य पुनर्प्राप्ति होती रहे। शत शत प्रणाम।

अस्तु।

[ चित्र : रेखाचित्र के साथ श्री चंद्रकांत सोमपुरा। ]

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