देवांशु झा : दक्षिण का प्रश्न
क्या आपने इस विषय पर विचार किया है कि उत्तर और दक्षिण के राज्यों में चुनाव परिणाम इतने अलग क्यों होते हैं? एक तरह से देखा जाय तो कर्नाटक के अतिरिक्त दक्षिण के सभी राज्यों में बीजेपी अपने अनेक प्रयासों के बाद भी उठ नहीं पा रही। पिछले दिनों जिन चार राज्यों में चुनाव हुए उनमें से तीन राज्यों में बीजेपी को बड़ा बहुमत मिला परन्तु तेलंगाना में वह बढ़कर भी बहुमत से मीलों दूर रह गयी।
सेक्यूलर और मोदी विरोधियों के लिए यह उत्तर और दक्षिण का ऐसा विभाजन है, जिसे वह बुद्धिमान प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष बनाम मूर्ख, सांप्रदायिक, गाय-गोरू वाले कहकर अपने मन की भड़ास निकालते रहते हैं परन्तु क्या सत्य भी ऐसा ही है?
ध्यान से देखें तो दक्षिण के राज्यों में हिन्दू धार्मिक कर्मकांड, मंदिर आदि जाने का प्रचलन और धार्मिक प्रतीक चिह्नों का प्रयोग अधिक स्पष्टता से भासित होते हैं। वे अपनी धार्मिक पहचान के प्रति अधिक हठी और निर्भ्रांत हैं फिर क्या कारण है कि वे बीजेपी जैसी हिन्दू हित की बातें करने वाली पार्टी के बदले घोर तुष्टीकरण करने वाले कांग्रेसी या लेफ्ट अथवा स्टालिन जैसों को चुन लेते हैं। या फिर किसी परम भ्रष्ट क्षेत्रीय नायक को देवता के पद पर बिठाकर ठगे जाते हैं। और ऐसा एक बार नहीं बल्कि बारंबार होता रहा है।
क्या दक्षिण में बीजेपी की पैठ अभी वैसी नहीं कि वह चुनाव जीत सके? क्या दक्षिण में बीजेपी के नेता केन्द्रीय योजनाओं का प्रचार प्रसार नहीं कर पा रहे? यानी पैकेजिंग अच्छी नहीं है? क्या दक्षिण में बीजेपी को उत्तर और हिन्दी वालों की पार्टी माना जाता है? क्या उन्हें इस बात का भय सताता है कि बीजेपी को चुनना यानी हिन्दीकरण की ओर बढ़ना है? क्या नरेन्द्र मोदी को वह हिन्दी वाले प्रभावशाली प्रधानमंत्री मानते हैं? क्या बीजेपी उन्हें सांप्रदायिक पार्टी लगती है? आश्चर्य तो इस बात पर है कि वे बीजेपी से कहीं अधिक सांप्रदायिक और खतरनाक शक्तियों को चुनते हैं। जो देश से लेकर उनके धर्म तक का अहित कर रहे। जिनका एकमात्र उद्देश्य हिन्दुओं को कमजोर करना और उनका धर्मांतरण कराना है। केरल से लेकर आंध्र,तेलंगाना, तमिलनाडु तक इसके जीवंत प्रमाण हैं।
दक्षिण के वे विशाल हिन्दू मंदिरों वाले प्रांत..पूजा अनुष्ठान के आग्रही लोगों के प्रांत, बिना किसी अपराध-बोध और लज्जा के माथे पर भभूत तिलक लगाने वाले लोगों के प्रांत आखिर चुनाव के समय वामपंथियों और कांग्रेस के साथ क्यों खड़े हो जाते हैं। क्या वहां के जनसामान्य के लिए कांग्रेस के लुभावने वादे, फ्रीशिप का जाल,एक बोरी मुफ्त चावल उन्हें विवश कर देते हैं। क्या वे प्रलोभनों के लिए कहीं अधिक वल्नरेबल हैं? आप ध्यान से देखें तो पता चलता है कि दक्षिणी राज्यों में धर्मांतरण उत्तर के मुकाबले सरल है। भारत में जितना धर्मांतरण होता है, उसका लगभग चौहत्तर प्रतिशत अकेले दक्षिण में हो रहा। स्थिति गंभीर है। ऐसा क्यों हो रहा? क्यों वहां के लोग धर्मांतरणकारियों के जाल में फंस रहे। और फंसने की यह प्रक्रिया निर्बाध रूप से जारी क्यों है? जागरण अगर हो भी रहा तो वह धरातल दिखाई क्यों नहीं देता? दक्षिण का सिनेमाई जीवन असली सामाजिक जीवन से इतना भिन्न क्यों है?
दक्षिण की स्थिति चिंतनीय है। केरल एक भयावह निद्रा में है। मैथिल में कहते हैं–निसुवा कर सोना। वहां लोगों को वर्तमान संकट की विकरालता का अनुमान नहीं है? क्या वे अब तक सेक्यूलरिज्म के छलावे में जी रहे? मेरा निजी अनुभव तो इस सत्य का संकेत करता है। मैंने जिन मलयाली लोगों से वहां की सांप्रदायिक स्थिति की ओर इशारा किया, उन सबों ने हंसकर मेरी बात को टाल दिया या यह कहकर उपहास किया कि North Indians don’t understand !! क्या उन्हें इस बात का भ्रम है कि हिन्दू हित की बात करने वाली बीजेपी को सत्ता से दूर रखकर वे कोई महान कार्य कर रहे–जो उनके सर्वाधिक साक्षर और पढ़े-लिखे होने का प्रमाण देता है। तेलंगाना और आंध्रप्रदेश की स्थिति केरल से बहुत बेहतर नहीं है। धर्मांतरणकारी चप्पे चप्पे पर जाल बिछा चुके हैं।उनके तरीके भी बड़े छद्मी हैं। लोग बड़ी संख्या में धर्मान्तरित हो चुके हैं। तमिलनाडु में स्टालिन और उनके पुत्र और अन्य संबंधियों के बयान यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं कि वे हिन्दू धर्म का कितना सम्मान करते हैं और उनकी मंशा क्या है। तो फिर इन राज्यों की जनता क्या सोचती विचारती है? हिन्दी और उत्तर भारत को प्रेत की तरह देखने से उन्हें क्या प्राप्त होने वाला है? क्या यह उनके अस्तित्व का प्रश्न नहीं है? क्या यह उनके आत्मावलोकन और जागरण का समय नहीं है? क्या उनका धार्मिक दायित्व केवल विशाल मंदिरों के उत्तुंग गोपुरों का गौरव गायन करने, माथे पर तिलक भभूत लगाने, मुट्ठी भर ब्राह्मणों द्वारा वैदिक कर्मकाण्ड का निर्वहन करने और भूतकाल की महानता के वर्णन तक सीमित है? व्यावहारिक धरातल पर वह कहां खड़े हैं? जहां खड़े हैं, वह भूमि उनकी रह गयी है? या निकट भविष्य में रह जाने वाली है?