देवांशु झा : आत्महंता

यह घटना‌ विस्मयकारी है। हमारे मन को तोड़ती है। खेल जगत में नायक के रूप में प्रतिष्ठित खिलाड़ी‌ के पिछले सारे तप-त्याग से अर्जित कीर्तिशिखरों को धूल-धूसरित कर जाती है। मैं विश्वास नहीं कर पाता परन्तु हमारे समय में हरियाणा और पूरे देश के दो सबसे बड़े पहलवानों ने अपने यश को अपने हाथों मिट्टी में मिला दिया। कभी पूरा देश उन्हें गर्व से देखता था।सिर पर बिठाया करता था। भारतीय पारम्परिक खेल के आधुनिक योद्धा, जो वैश्विक रंगमंडल में अपना खम ठोक चुके थे-अब पराजित ,मलिन, श्लथ पड़े हुए हैं। देश कह रहा है कि तुम इसी के योग्य हो! इस आनन्दविहीन अंधकार में गुम हो जाना ही तुम्हारी नियति है।

आश्चर्य है! परम आश्चर्य! आधुनिक समय में कुश्ती का कल्ट पहलवान सुशील कुमार अपराधियों की तरह जेल में बंद है और कभी उसके ही पदचिह्नों पर चल कर भारत के सबसे ऊर्जस्वित युवा मल्ल के रूप में पहचान बनाने वाला बजरंग पुनिया घटिया राजनीति करते हुए एशियाई खेलों में ध्वस्त पस्त होकर निढाल पड़ा है। वो सारे पुराने दमकते हुए मेडल बुझ गए हैं। केवल यह पराजय रह गई है। क्योंकि यह साधारण हार नहीं!

बजरंग पुनिया की पराजय बहुत सूक्ष्म और सांकेतिक है। वह दुर्योधन की तरह अपनी टूटी हुई जंघा संभाले घिसट रहा। अकेला असहाय पड़ा है। उसका पूर्व पूर्णतः नष्ट हो चुका है। कुछ ध्यान में आता है तो केवल कुत्सित राजनीति से प्रेरित उसका चेहरा। एक अशिष्ट अभद्र वावदूक जो जंतर मंतर पर बैठ कर देश के प्रधानमंत्री की छाती तोड़ने की धमकियां देता था। वैश्विक मल्लयोद्धा ने एक झटके में श्रम-स्वेद से अर्जित यश:काया की खाल उतार कर हटा दी थी और नग्न होकर कहा था–देखो! मैं तो भारत की प्राचीन मल्लविद्या का विनीत विद्यार्थी नहीं, एक दबंग लठैत हूॅं। मैं तो अपने आदरणीय वरिष्ठ सुशील कुमार का अनुसरण करता हूॅं। महाजनो येन गतः स पन्था:। मैंने अखाड़े में पहलवानों को पटका है! अब मैं दादा हूॅं। मैं प्रधानमंत्री की भी छाती तोड़ सकता हूॅं। वाह…टूट गई छाती!!

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यह घटना चकित करती है। एक महान कहलाया जाने वाला एथलीट अचानक अपना रूप बदलता है। वर्षों के तपन और संयम, अनुशासन से जो उसने पाया था, उसे क्षण भर में अपने पांव तले रौंद कर अट्टहास करता है कि देखो, यही मेरा असली चेहरा है। मैंने वर्षों अखाड़े में खुद को इसलिए गलाया, तपाया कि एक दिन मैं अपने ही देश को मलिन कर सकूं। कह सकूं कि मुझसे बड़ा हीरो कोई नहीं। मैं तो डोले शोले वाला पहलवान हूॅं।‌ लेकिन आज तो वह हीरो, वह पहलवान बुरी तरह से हार गया। उस मंच पर हारा, जिस मंच के लिए वह बना था। जिस मंच के लिए उसने बचपन से युवावस्था तक खुद को निचोड़ा, तपाया। बजरंग पुनिया को एक अदृश्य सत्ता ने समझाया है। वही सत्ता जो धर्म अधर्म के युद्ध को चुपचाप देखती है। और जब उसे लगता है कि अधर्म का पलड़ा भारी हो रहा–वह एक हलका सा झटका देती है। सब खत्म हो जाता है।

मुझे ध्यान आता है–बरसों पहले आजतक में सुशील कुमार आया था। तब वह देश का सबसे बड़ा पहलवान था। आजतक के न्यूजरूम में बड़े-बड़े सितारे खिलाड़ी आते रहते थे, मैं कभी किसी से मिलने नहीं जाता था। लेकिन सुशील कुमार से मिलने की मेरी उत्कट अभिलाषा थी। मैं उसका बहुत सम्मान करता था। अपना काम छोड़ कर दौड़ते हुए गया था। छोटे कद के गठीले सुशील से हाथ मिलाया। मैंने कहा–आप पर अभिमान है। आप महान मल्लयोद्धा हैं। वह हंसा। लेकिन नियति देखिए! उसी सुशील कुमार ने जमीन हथियाने वाले एक दबंग प्रापर्टी डीलर के रूप में अपना अपघटन कर लिया। उसे वैश्विक मंच की करतलध्वनियां कर्कश लगने लगीं। तिरंगे के साथ बजता राष्ट्रगान व्यर्थ लगने लगा।उसने अपराधी होकर आत्मध्वंस किया और बजरंग पुनिया ने सुशील का ही रास्ता चुना। सुशील ने दब छुपकर किया। बजरंग ने निर्लज्ज धृष्टता दिखलाई। उसने पहलवानी को उसकी मर्यादा के मंच से उतार कर सड़क पर बिठा दिया। वह वहीं से खम ठोंकने लगा–यही मेरा स्तर है!

आज बजरंग पुनिया एशियाई खेलों में अंकहीन रह गया। पराभूत होकर लौट रहा। वहां भी वह लठैती वाली देहभाषा के साथ गया था। उसमें विनम्रता और खेल का सम्मान रहा होता तो ट्रायल देकर जाता पर वह तो बाहुबली होना चाहता था। प्रधानमंत्री की छाती तोड़ने की मदमाती हुंकार भरने वाला। अब उसका गर्व से फूला सीना नहीं रहा।वह क्या उत्तर देगा? कौन से बहाने बनाएगा? बजरंग पुनिया की यह पराजय साक्षात ईश्वरीय दण्ड का विधान है। उसे याद रखना होगा कि फुटबॉल की महानतम प्रतिभा मैराडोना की कीर्तिपताका भी मुरझा गई थी। कभी पूरा विश्व उसके लिए पागल हुआ करता था, फिर एक दिन जब वह नजर से उतर गया तो मैदान खाली पड़ गया। सन्नाटा रह गया–सांय सांय करता हुआ। हजारों हजार की उन्मत्त भीड़ के सामने जादू दिखलाते हुए उसके पांव शिथिल पड़ गए। नशेड़ी अपराधी होकर वह ढल गया। इस संसार की सारी कीर्तिरश्मियां तभी तक दमकती हैं, जब तक उन रश्मियों का अर्जक विनयशील, कृतज्ञ रहता है। जिस दिन वह बेलगाम होकर हुंकार भरता हुआ स्वयं को प्रतिभट मान लेता है, उसी दिन से कीर्तिरश्मियां बुझने लगती हैं।

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